सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक की लोकप्रियता को लेकर अब किसी बहस की गुंजाइश नहीं है। मिस्र की क्रांति से लेकर अन्ना हजारे के आंदोलन तक कई मौकों पर फेसबुक की अहम भूमिका दुनिया देख चुकी है। नतीजा उपयोक्ताओं की संख्या में लगातार बढ़ोतरी। यह संख्या अब 60 करोड़ के आंकड़े को पार कर चुकी है। सदस्यों की संख्या के लिहाज से दुनिया के तीसरे सबसे बड़े मुल्क की ‘संज्ञा’ पा चुकी फेसबुक की अपार लोकप्रियता की वजह यूं तो कई हैं, लेकिन एक बड़ी वजह है छोटी-छोटी निजी कोशिशों को सफलता दिलाने के बड़े मंच के रुप में इसका उदय।
मिसाल के लिए टूंडला के शीतगृह मालिक अश्विनी पालीवाल ने अपने हक़ की लड़ाई फेसबुक पर लड़ी। फेसबुक पर आगरा जिला प्रशासन का पेज है। मतदाता दिवस के अवसर पर जिला प्रशासन ने लोगों को जागरुक करने की मुहिम पर साइट पर अपनी ही पीठ ठोंकी तो अश्विनी ने लिख डाला-“आपने भले ही लोगों को जागरुक किया हो, लेकिन मुझे मेरे वोट डालने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है।” दरअसल, अश्विनी कई कोशिशों के बावजूद अपना व परिवार के अन्य सदस्यों का मतदाता पहचान पत्र नहीं बनवा पा रहे थे। इस शिकायत के बाद भी जिला प्रशासन के कानों पर जूं नहीं रेंगी तो अश्विनी ने सख्त शब्दों में लिखा-“क्या मैं मान लूं कि वोट डालने का मेरा संवैधानिक अधिकार मुझे नहीं मिल पाएगा। ” बस, ‘संवैधानिक अधिकार’ का हवाला देते ही ज़िला निर्वाचन कार्यालय ने उनकी शिकायत का निपटारा एक दिन के भीतर कर दिया।
फेसबुक पर इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं, जहां उद्देश्य प्राप्ति के लिए छोटी-छोटी निजी कोशिशें अलग अलग रंग में दिखती हैं। हाल में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘आई एम’ के निर्देशक ओनिर ने फिल्म के वित्त का इंतजाम फेसबुक के जरिए किया। इस फिल्म के 400 से अधिक सह निर्माता है। इस तरह ओनिर ने फिल्म निर्माण का एक अनूठा सहकारी फॉर्मूला रच डाला। कई धारावाहिकों और फिल्मों में सहायक निर्देशक रह चुके आशीष भाटिया यूट्यूब पर एक हिन्दी कॉमेडी श्रृंखला ला रहे हैं तो इसके प्रचार के लिए फेसबुक पर जुटे हैं। गुड़गांव में पार्षद पद का चुनाव लड़ रहे अशोक कुमार फेसबुक पर अपना कैंपेन चला रहे हैं। उनकी रणनीति में फेसबुक अहम है,क्योंकि उनके वार्ड का बड़ा हिस्सा पॉश कॉलोनी का है। गुडगांव और पालम विहार से जुड़े जितने पेज और कम्यूनिटी हैं, उन सभी पर बात रखी जा रही है। उनका कहना है कि आलीशान कोठियों में बैठे लोगों से संवाद का बेहतर जरिया हो सकती है फेसबुक। इसी तरह पत्रकार शिवेन्द्र सिंह चौहान ने राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान ‘कॉमनवेल्थ झेल’ नाम से कैंपेन एक झटके में शुरु कर दिया था, जो बाद में खासा चर्चित हुआ।
भारत में इंटरनेट के उपयोक्ताओं की संख्या ही अभी आठ करोड़ के आसपास है। और फेसबुक का इस्तेमाल करने वाले तो इससे भी कम हैं। ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति है कि फेसबुक भारतीय ‘नेटीजन’ की धड़कन है। लेकिन, इसमें भी कोई शक नहीं कि सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के इस्तेमाल का दायरा लगातार विस्तृत हो रहा है। नेटवर्किंग, मनोरंजन और गेम्स से आगे निकल लोग फेसबुक के जरिए न केवल नए-नए प्रयोग कर रहे हैं बल्कि निजी कोशिशों से जीवन को बेहतर बनाने की कवायद कर रहे हैं।
उपयोक्ताओं की तेजी से बढ़ती संख्या के बीच फेसबुक ‘सही लोगों से सही संवाद’ का विकल्प मुहैया करा रही है। छोटी छोटी कोशिशें इसी वजह से सफल भी हो रही हैं। फेसबुक जैसा मंच बार-बार या तयशुदा योजना के तहत नहीं बनाया जा सकता, लिहाजा आवश्यक है कि इस मंच का बेहतर और सार्थक इस्तेमाल किया जाए। इस संबंध में प्रशिक्षण की भी दरकार है,क्योंकि इस मंच से अनंत संभावनाओं का द्वार खुलता है।
(लेखक साइबर पत्रकार हैं)
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