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कृषि प्रधान देश का बदहाल कृषक समाज

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भारतवर्ष को दुनिया में कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता है। हमारे देश के किसानों को अन्नदाता कहकर पुकारा जाता है। परंतु देश में चल रही विकास नामी बयार की ज़द में आकर कभी-कभी यही कृषक समाज अथवा किसान देश की विभिन्न सरकारों द्वारा कभी अपनी खेती की ज़मीनों से बेदखल होता हुआ दिखाई देता है तो कभी उसे इसका विरोध करने पर लाठियां, गोलियां तक खानी पड़ती हैं। और कई बार किसानों के साथ होने वाली यही दमनात्मक कार्रवाई किसान-पुलिस संघर्ष का रूप धारण कर लेती है। परिणामस्वरूप  कई लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ती हैं। ऐसा ही दुर्भाग्यपूर्ण नज़ारा गत् दिनों दिल्ली से सटे गौतमबुद्ध नगर (नोएडा) के समीप भट्टा पारसौल गांव में देखा गया। अगले ही दिन किसानों का यही गुस्सा आगरा में भी देखने को मिला। नोएडा से आगरा तक यमुना एक्सप्रेस हाईवे के निर्माण के अंतर्गत् आने वाली किसानों की ज़मीनों के अधिग्रहण के विरोध में यह रोष भड़का था। इस संघर्ष एवं रोष ने कई सुरक्षाकर्मियों व किसानों की जान ले ली तथा संपत्ति का भी भारी नुकसान हुआ।

उधर दूसरी ओर भारतवर्ष को 2020 तक विकसित राष्‍ट्र बनाए जाने की दिशा में राजकीय स्तर पर प्रयास जारी हैं। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए देश में तमाम नए उद्योग स्थापित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। तमाम नए उपनगर बसाए जा रहे हैं। तमाम नए एक्सप्रेस हाईवे तथा राजमार्ग नवनिर्मित हो रहे हैं तथा बड़े पैमाने पर सड़कों के चौड़ीकरण का काम भी चल रहा है। जाहिर है विकास के इन कार्यों के लिए  जमीन उपलब्ध कराने की सबसे बड़ी चुनौती सरकार के समक्ष नजर आ रही है। हमारे देश में कुछ राज्य ऐसे हैं जोकि निवेशकों के लिए अपने प्रवेश द्वार खोले हुए बैठे हैं। जबकि कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां विशेष आर्थिक जोन (सेज) हेतु जमीनों का अधिग्रहण तो जरूर किया गया है परन्तु इस विषय पर गहरी राजनीति होती हुई भी देखी जा रही है। पश्चिम बंगाल का नंदीग्राम तो पूरे देश के सेज विरोधियों के लिए गोया एक प्रतीक सा बन चुका है। प्रश्र यह है कि क्या कृषि योग्य भूमि को समाप्त करने की शर्त पर विकास कार्य किए जाएंगे? और इन सबसे बड़ा प्रश्र यह है कि क्या सरकार के पास उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण के अतिरिक्त विकास करने हेतु कोई दूसरा विकल्प ही नहीं रह गया है?

प्राय: हम अपनी तुलना चीन से करने लगते हैं।  चीन व भारत को मिली आजादी में कोई विशेष समय अन्तराल नहीं है। इसके बावजूद आिखर चीन इतना विकसित कैसे हो गया। जबकि भारत अभी अपने विकास का खाका मात्र ही तैयार कर रहा है। भारत के विकास की योजना बनाने वाले रणनीतिकारों ने जब चीन का दौरा किया तथा उनकी औद्योगिक, वाणिज्यिक तथा आर्थिक नीतियों को न सिर्फ कागजों व फाईलों में बल्कि धरातलीय स्तर पर भी उसे गौर से देखा तो उनके कान खड़े हो गए। दरअसल चीन में बने तमाम विशेष औद्योगिक क्षेत्र की तर्ज पर ही भारत में विशेष आर्थिक जोन अथवा सेज स्थापित किए जा रहे हैं।चीन में स्थापित इस प्रकार के अधिकांश विशेष औद्योगिक क्षेत्र समुद्र के किनारे स्थापित किए गए हैं। या फिर इसके लिए बंजर भूमि का इस्तेमाल किया गया है। समुद्र के किनारे स्थापित होने वाले विशेष औद्योगिक क्षेत्रों हेतु अलग बन्दरगाहों की व्यवस्था है। यह औद्योगिक क्षेत्र समुद्र के किनारे होने के कारण शहरों को प्रदूषण से मुक्त रखते हैं। चूंकि इन क्षेत्रों में अधिकांश कच्चे माल की आपूर्ति भी जलमार्ग के द्वारा हो जाती है तथा इनके द्वारा निर्मित माल का निर्यात भी जलमार्ग से ही हो जाता है। इसलिए इन औद्योगिक क्षेत्रों में प्रयोग में आने वाले ट्रांसपोर्ट का बोझ भी शहरों पर नहीं पड़ता। अत: न सिर्फ यातायात व्यवस्था प्रभावित होने से बचती है बल्कि शहरों में पर्यावरण पर भी इस औद्योगिकरण का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। चीन में किसानों की उपजाऊ  ज़मीनों का जबरन अधिग्रहण कर किसानों को  उनकी पुश्तैनी ज़मीनों से इस प्रकार बेदखल नहीं किया जाता। चीन में उपजाऊ ज़मीन को बलात अधिगृहित कर उस पर सड़कें बनाने के बजाए  लाईओवर बनाने पर ज्य़ादा ज़ोर दिया जाता है। 

हमारे देश में विशेष औद्योगिक क्षेत्र स्थापित करने तथा नए राजमार्ग बनाने व टाऊनशिप बसाने का फैसला तो जरूर किया गया। परन्तु कृषि रूपी पारंपरिक उद्योग को उजाड़कर अन्य उद्योग स्थापित किए जाने का फैसला हरगिज सही नहीं कहा जा सकता। हमारे देश में भी लंबी दूरी के  लाईओवर हाईवे बनाए जा सकते हैं। यहां भी समुद्री किनारों पर लाखों एकड़ जमीन उद्योग स्थापित करने हेतु अधिगृहीत की जा सकती है। यदि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से नए औद्योगिक जोन समुद्र के किनारे स्थापित नहीं भी होना चाहते तो भारत जैसे विशाल देश में बंजर व बेकार भूमि की भी कोई कमी नहीं है। इन पर बड़े से बड़े औद्योगिक क्षेत्र बनाए जा सकते हैं। बल्कि ऐसा करने से तो नए औद्योगिक शहर बसने की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। फिर आिखर कृषि योग्य भूमि पर ही क्योंकर नजर रखी जाती है? कहीं यह सब किसानों के विरुद्घ रची जा रही एक बड़ी सािजश का हिस्सा तो नहीं? या कहीं सत्ता में बैठे मुठ्ठी भर दलालों के द्वारा देश के विकास के नाम पर इसी भूमि अधिग्रहण के नाम पर धनवान बनने की यह कोशिश तो नहीं?

यदि वास्तव में भारत सरकार व देश के औद्योगिक विकास के क्षेत्र में उसका साथ देने वाली राज्य सरकारें कृषि प्रधान देश होने के चलते देश के औद्योगिक विकास के लिए गंभीर हैं तो उन्हें किसानों से उनकी जमीनों का अधिग्रहण करने के बजाए कृषि उद्योग को प्राथ्मिकता के आधार पर आगे बढ़ाना चाहिए। उन्हें नई तकनीक पर आधारित उन्नत खेती करने के उपाय सुझाने चाहिए तथा इसके लिए उनकी सहायता करनी चाहिए। हमें यह हरगिज नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश की 60 से लेकर 70 प्रतिशत तक की आबादी गांवों में रहती है तथा उसके जीविकोपार्जन का साधन भी मात्र खेती ही है। लिहाजा यदि चन्द पैसे देकर किसानों से उसकी जमीन छीन ली गई तो नि:सन्देह यह उस किसान परिवार के बच्चों के भविष्य के लिए बेहतर नहीं होगा। जब कृषि प्रधान देश भारतवर्ष का अन्नदाता कृषक समाज ही खुश व संतुष्ट नहीं रहेगा फिर आिखर हम देश की खुशहाली की कल्पना कैसे कर सकते हैं? किसानों को केवल मात्र अन्नदाता मानना ही काफी नहीं है बल्कि यह देश का वह विशाल समाज है जो अपनी फसलों के कटने के बाद बाज़ार में भी खुशहाली लाने का कारण बनता है। परंतु जब यही अन्नदाता ज़मीनों से बेदखल किया जाने लगेगा फिर आिखर हम इस किसान से न ही अन्न की उ मीद रख सकेंगे नही किसी प्रकार की खरीददारी की। बजाए इसके वह किसान व उसका परिवार स्वयं अपनी आजीविका के लिए दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर हो जाएगा।.   
लिहाजा जरूरत इस बात की है कि केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार अथवा देश को औद्योगिक विकास की राह पर ले जाने वाले विशेष रणनीतिकार। सभी को देश के किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए ही ऐसा कोई भी फैसला लेना चाहिए। किसी भी भूमि के अधिग्रहण से पूर्व तुगलकी फरमान जारी करने के बजाए राजनैतिक तथा जमीनी स्तर पर आपसी सहमति बनने के बाद ही किसी निर्माण अथवा उद्योग को आमंत्रित किया जाना चाहिए। भारत में लागू भूमि अधिग्रहण अधिनियम की पुर्नसमीक्षा का जानी चाहिए तथा इसमें किसानों के हितों को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए। और इन सबसे बड़ी बात यह है कि यदि वास्तव में सरकार देश में नए राजमार्ग बनाना चाहती है, नई टाऊनशिप अथवा बड़े उद्योग आमंत्रित व स्थपित करना चाहती है तो उसे उपजाऊ भूमि की ओर देखना बन्द कर देना चहिए तथा केवल समुद्री तटों की अथवा दूरदराज की बंजर जमीनों का इस्तेमाल करना चहिए। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि जैसी अन्नपूर्ण व्यवस्था को उजाड़कर उद्योग के नाम पर आग एवं धुआं उगलती हुई चिमनियां स्थापित कर देना हरगिज मुनासिब नहीं है। और न ही सरकार की गलत नीतियों के चलते देश के किसानों व सुरक्षाकर्मियों के मध्य होने वाले दुर्भाग्यपूर्ण खूनी संघर्ष उचित हैं।
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