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हर दौर में बदलता है फैशन : रितु कुमार

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कहते हैं, 'अच्छा फैशन हर मौसम के साथ हर इंसान के अनुरूप बदलता है.'

फैशन हर दौर में युवाओं में एक पैशन और इसे इजाद करने वालों में एक जूनून रहा है. रितु कुमार ने अपने डिजाईनज में हर मौसम, हर देश के रंग दिए जो आज उन्हें एक पैशन डिजाइनर के रूप में स्थापित करता है. रितु कुमार ने भारतवासियों का फैशन से तार्रुफ्फ़ उस वक़्त कराया जब इस बारे में कोई ख़ास जानकारी लोगों को हासिल नहीं थी. यह वो दौर था जब परिधान और पोशाक भारतीय परंपरा के पहनावे का परिचायक हुआ करते थे. लगभग चालीस साल पहले बंगाल के एक छोटे से गाँव में फेब्रिक डिजाईन से अपना करियर शुरू करने वाली इस महिला के नाम का शुमार आज चोटी के डिजाइनरज में किया जाता है. हिंदुस्तान में बुटीक परंपरा की नींव रखकर एक नयी सभ्यता का उद्घोष तो रितु ने किया ही है. लेकिन इतने मंज़र देखन के बावजूद उन्होंने कभी भारतीय परिधानों के महत्व को नज़रंदाज़ नहीं किया बल्कि अपनी हुनर से इसमें नए रंग भरकर भारत की सदाबहार पोशाक साडी और लहंगे को विश्व स्तर पर ख्याति ही दिलाई. कपड़ों की ज़रूरत से फैशन को आदत तक बदलते वक़्त के दौरान क्या कुछ रहा जानते हैं रितु कुमार से. 

आपके शुरुआती दिनों में आज के मुकाबले बहुत कम लोग फैशन को बतौर पेशा अपनाते थे. ऐसे समय में फैशन की नयी दुनिया से रूबरू होने में कैसा रोमांच था?
जब मैंने काम शुरू किया तो फैशन करके कोई चीज़ थी ही नहीं. भारत में तब कोई दुकान नहीं थी जहाँ आप फैशन के कपड़े खरीद सकें. वह समय था जब कपड़ा ले कर लोग दर्जी को देते थे. ज्यादातर साडियां ही पहनी जाती थीं उन दिनों. मेरा काम इसलिए शुरू हुआ क्यूंकि मुझे एक ऐसा गाँव मिला जहाँ कपड़ों की बुनाई होती थी. जहाँ बहुत ही गरीबी थी. एक गाँव और था कलकत्ता के बाहर जहाँ एम्ब्रोइदेरिस होती थीं. मेरी रूचि क्राफ्ट के ज़रिये गारमेंट्स पे आई. मुझे यह जानने में बहुत दिलचस्पी थी कि ये पूरा काम भारत के इतिहास में कैसे खो गया. असल में फिरंगी जब भारत आये थे तो हमारा सारा बेहतरीन काम ले गए थे. फिर हम लोग उनसे कपड़े ख़रीदा करते थे. इस वजह यह काम भारत में पूरे तौर पर ख़तम हो गया था. मेरा काम वहीँ से शुरू हुआ. मैंने उन्हें वापस लाने की ठानी. मुझे बहुत सारी अड़चनें आयीं थी उस दौर में जब मैंने साडियां बनानी शुरू की. तब ऐसी कोई दुकान ही नहीं थी जो मेरे कपड़े खरीदें. इसलिए मुझे अपनी दुकान खोलनी पड़ी. मुझे तब बिसनेस के बारे में भी कुछ पता नहीं था. धीरे धीरे मैंने इसे सीखा. मुश्किलात तो बहुत आयीं.

आपके संघर्ष के दौर में आपकी लाइफ लाइन क्या रहा?
मेरी सास ने मेरा बहुत हौसला बढ़ाया. कुछ ही सालों के बाद मैंने अपने पति के साथ काम करना शुरू किया. उन्होंने भी मेरी बहुत मदद की. हमने मिल के एक्सपोर्ट का काम शुरू किया. आहिस्ते आहिस्ते मैं रिटेल में चली गयी. अगर रितु कुमार का लेबल नहीं होता तो मैं शायद कुछ और नाम रख देती. क्यूंकि उस समय सिर्फ काम चलाने की ज़रूरत थी. फिर बाद में ये हमारी जीविका बन गयी. दूसरी बात, जब पंद्रह साल पहले रैंप के ऊपर सारे शोज़ होने शुरू हुए और मीडिया ने इसे तवज्जो दी तब मुझे ख्याल आया कि ये एक बिसनेस भी हो सकता है. उस वक़्त तक तो मैं रिटेल का काम ही करती थी. उस समय हम अपना लेबल लगाने का काम बहुत कम और शोध का काम ज्यादा करते थे.

आप उनलोगों में से हैं जिनका मानना है कि कला और कॉस्टयूम डिजाईनइंग का दर्जा समान होना चाहिए. इसकी हक की लड़ाई भी आप लड़ती आ रही हैं. क्या कुछ फर्क आप देखती हैं इस लम्बे अन्तराल में?
एक ज़माने में जो भी भारतीय पोशाक पहनी जाता था उसे लेकर लोग समझते थे कि जो कपड़ा पश्चिम से आता है वही अच्छा है. हालांकि हमारी टेक्सटाइल सभ्यता तीन हज़ार साल पुरानी है और सारी दुनिया ने हमसे इस सभ्यता को सीखा है. कपास की खेती तो भारत में ही की जाती है. इसमें उतनी ही गहराई और कारीगरी है जितनी किसी और कला में है. मुझे लगता है कि आजकल के फैशन डिजाइनर ने इस बात को समझना शुरू कर दिया है. क्यूंकि ज्यादातर उनकी कलेक्शन किसी न किसी कला पर ही आधारित दिखती है.

दिल्ली में पालन पोषण होने के बाद कलकत्ता से अपने करियर की नींव रखने की क्या वजह रही?
कलकत्ता का मेरा अनुभव बहुत ही सीखने वाला रहा. क्यूंकि जब मैं दिल्ली में थी तो यह छोटी जगहों में गिनी जाती थी. कलकत्ता उस दौर का सबसे खूबसूरत और जीवंत शहर होता था. वह ज़िन्दगी मुझे बहुत रोमांचित करती थी. अलग अलग पृष्ठभूमियों के लोगों से भी मुझे बहुत कुछ जानने समझने का मौका मिला. मैंने जो काम करना शुरू किया उसमें उस शहर से मुझे बहुत सहयोग मिला. मेरा ख्याल है वही काम दिल्ली में शुरू करना उस वक़्त मेरे लिए बहुत मुश्किल रहता.

फैशन जगत में शोहरत कमाने की आपने कभी कल्पना की थी?
मुझे याद है कि बचपन में मैं आर्ट क्लासेस करती थी. उस दौर में मैंने मूर्तिकला और फाइन आर्ट्स की भी तालीम ली थी. उसके बाहर मुझे कभी फैशन का कुछ ख्याल नहीं आया. इसकी कोई परंपरा नहीं थी इसीलिये मैंने नहीं सोचा था कि इसमें भी करियर बनाया जा सकता है. मैंने यह काम शौकिया शुरू किया था किसी योजना के तहत नहीं. क्यूंकि इस क्षेत्र के बारे में कुछ पता नहीं था तो इस बारे में कभी नहीं सोचा था.

अगर आप पतले दुबले हैं तो आप सुन्दर दिख सकते हैं या खुद को बेहतर प्रस्तुत कर सकते हैं यह आम सोच है लोगों के बीच. आप क्या मानती हैं इस बात में कितनी सच्चाई है?
पतली दुबली लड़कियां आमतौर पर कम उम्र की होती हैं. और युवती कैसी भी हों सुन्दर ही लगती हैं. मुझे लगता है कि हर उम्र की अपनी अलग खूबसूरती होती है. और अपना अपना पहनने का ढंग होता है जिसकी समझ भारतीय नारी को है. यह ज़रूरी नहीं कि आप पतले दुबले हैं तभी सुन्दर लगेंगे. हमारी जो सभ्यता है, जो भारतीय परिधान हैं उनमें इतनी विविधता है कि आप चाहे बूढे भी हो जाएँ, आप उसमें खूबसूरत लगेंगे या अच्छा महसूस करेंगे.

आपको भारतीय फैशन जगत में लहंगा क्वीन के नाम से जाना जाता है. लेकिन खुद आपकी पहली पसंद कौन सी पोशाक है?
साड़ी मुझे ज्यादा पसंद है क्यूंकि वो आपकी पूरी उम्र चलेगी. और लेहेंगा एक समय तक ही अच्छा लगता है. हालांकि राजस्थान में आज भी लेहेंगे का चलन है. लेकिन साड़ी अगर खूबसूरत होगी तो आप अट्ठारह साल के हों या अस्सी साल के वो ताजिंदगी चलेगी और आप उसे अगली पीढी को भी भेंट कर सकते हैं.

डिजाईन करते वक़्त आप किन बातों पर ख़ास तवज्जो देती हैं?
ज़रूरी है कपड़े की खूबसूरती को बनाये रखने के लिए उसमें बड़े ही सधे हुए ढंग से एक पारंपरिक कला निहित हो ताकि वो सालों तक नयी लगे. जबसे मैंने डिजाईन करना शुरू किया है मैंने हमेशा क्लासिकल तत्वों का उपयोग करते हुए उसे बड़ी सादगी से कपड़ों पर उतारा है. क्यूंकि ये हमेशा लोगों को लुभाती है. और तुरत फुरत का फैशन करना मुझे नहीं आता. वो होता बहुत आकर्षक है और आजकल के युवाओं की ख़ास पसंद भी वही है. पर मेरा काम ज्यादातर प्राचीन हस्त कलाओं की झलक से भरा पूरा होता है.

इस क्षेत्र में अपना भविष्य देखने वाले युवकों को आप क्या सलाह देना चाहेंगी?
यह समझने की ज़रूरत है कि ये एक विज्ञानं है. ये उतना आसान नहीं है जितना दिखता है. बाहर से इसमें जितना ग्लेमर नज़र आता है अन्दर से उतनी ही इसके अन्दर कड़ी मेहनत और चुनौती है. क्यूंकि इसका बाज़ार पहले से ही हुनरमंद लोगों से भरा हुआ है. इसलिए इस दुनिया में खुद को बनाये रखने और नाम कमाने के लिए बहुत सहनशक्ति और रचनात्मकता चाहिए.

रैंप पर दिखाए गए कपड़ों की उपयोगिता आम ज़िन्दगी में कहाँ तक है?
फैशन शो एक नाटक होता है. आप अगर आम कपड़े दिखाएँगे तो वह नाटक नहीं आ पाएगा जिसकी ज़रूरत फैशन शोज़ में होती है. ज्यादातर रैंप के ऊपर आप ऐसी चीज़ें ही देखेंगे जिसका बहुत ही सरल रूप रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में पहना जाता है.

अपने पारिवारिक जीवन के साथ बिजनेस यानि करियर का तालमेल बनाना कितना अनुभव भरा रहा आपके लिए?
कोई भी दर्जे का काम हो. आप उसमें कितने भी रचे बसे क्यूँ न हों, इन दोनों भूमिकाओं को निभाना बहुत मुश्किल होता है. पर एक बात ज़रूर है कि करियर होने से खुद में विश्वास आ जाता है जिसका अच्छा प्रभाव बच्चों पर भी पड़ता है.

जीवन के इस पड़ाव पर आप खुद को कहाँ देखती हैं?
मेरा ख्याल है मुझे जितने भी सम्मान मिले हैं अब तक, मुझे खुद को उनके काबिल बनाये रखना है. मतलब काम में और ज्यादा खो जाने की ख्वाइश है. इस क्षेत्र से मुझे जो भी मिला है उसे समेट के ऐसा लगता है कि किसी तालाब में पत्थर फेंके जाने के बाद उसकी लहरें जिस तरह जल्दी चली जाती हैं मुझे अपने काम को उस स्तर पर ले जाना है जहाँ लोग मेरे काम को देखकर हमेशा ताज़गी महसूस करें और अरसे तक याद रखें. मुझे लगता है कि मुझे उसी तरह का काम और करने की ज़रूरत है.



वेल्कम.

कलिका जैन

 

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