'रागिनी एमएमएस', 'कुछ लव जैसा' और 'स्टेनली का डब्बा'। तीनो फिल्मे एक के बाद एक देख ली। तीनों के अहम् किरदार कहीं न कहीं अपने अपने दर्द से जूझते दिखाई दिए। खोए सम्मान और आत्मविश्वास को पाने की लड़ाई लड़ते है। तीनो फिल्मे ख़त्म हो जाने के बाद गहरा असर छोडती है। देर तक जेहन में उथल पुथल मचाती है। सोचती हूं 'कुछ लव जैसा' की मधु अगर स्टेनली से मिल लेती तो उसे अपना दुःख कुछ कम लगता और अगर रागिनी के वीकेंड को जीते जी नरक की सैर बनाने वाली चुडैल जो खुद भयावह तकलीफ से गुजरने के बाद मरकर भी नहीं मरी, अगर स्टेनली से मिलती तो जरुर उसे दुनिया के क्रूर हाथो से बचाती। शायद उसे उसमे अपने बच्चे दिखते। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह वह प्यारा सा सुरक्षा कवच सा ख्याल है जिसकी हिंदी दर्शको को आदत है कि एक नायक होगा, जो चाहे कितनी भी तकलीफ सहे लेकिन अंत में सब दुखो को पार कर लेगा। सारी भयानकता को लील जायेगा और हम ख़ुशी ख़ुशी घर वपस चले जायेंगे। लेकिन अब ख़ुशी इतने सीधे सरल तरीके से नहीं मिलती। वह शहरी जीवन की जटिलताओ में उलझ सी गयी है। उसी उलझन को सुलझाने और मन की गहरी गांठो को एक-एक परत को खोलने से मिलती है ऐसा ही करती है यह फिल्में।
घर से निकलिए, कुछ ही देर में छोटी छोटी कारों मे दो बच्चों के साथ परफेक्ट फैमिली सड़कों पर दौड़ती दिख जायगी। ऐसा लगेगा दुनिया भर की खुशिया सिर्फ इन्ही की झोली में डाली गयी है। आभास भी नहीं होगा की इन्ही में कोई मधु है जो अपनी थमी हुयी जिन्दगी से इस कदर लड़ रही है की कोई स्टेनली पीठ पर बस्ता लादे इधर उधर भटक रहा होगा लेकिन किसी का उसकी तरफ ध्यान नहीं जाएगा। सबसे कठोर सच यह है की स्टेनली यह बात अच्छी तरह जानता है इसीलिए वह किसी से मदद मांगने भी नहीं जाता। रिश्तों के खोखलेपन को जी रहा है इसी शहर में, यहीं कहीं हमारे आस-पास। स्टेनली को कोई जिन्न भी मिल जाए तो शायद वह उससे भी अपना दुःख छुपा लेगा। अपने दर्द को ढाल नहीं बनाएगा। उसे भी डब्बे का खाना खिलाकर मंत्रमुग्ध कर देगा। उसके डब्बे के राज को जिन्न भी नहीं समझ पाएगा। ऐसा है स्टेनली और उसका आत्मसम्मान।
स्टेनली के पेट की भूख, उसके हिंदी टीचर की स्वाद की भूख और रागिनी के ब्वायफ्रेंड उदय की लालच की भूख में कितना फर्क है। अविश्वसनीय सा लगता लेकिन सच है ये। स्टेनली पेट की भूख के लिए अपने सम्मान को नहीं झुकने देता वही शिक्षक स्वाद की लालसा में किस हद तक क्रूर हो जाता है। उदय की मह्त्वाकांक्षा की भूख खुद को नंगा करने पर उतारू हो जाती है। मधु अपनी भूख की तलाश में है। एक भूख जो शायद सबसे दर्दनाक है लेकिन व्यक्त होती है डरावने रूप में। भुतिया बंगले की उस माँ की सम्मानजनक, कलंक रहित मौत की चाहत जिसे चुड़ैल कहा गया है। लेकिन यकीं जानिये जितना डर उदय की घिनौनी, भद्दी सच्चाई से लगता है उतना उस माँ से नहीं लगता जो बार-बार कहती है "मैं चुड़ैल नहीं हूं मैंने अपने बच्चो को नहीं मारा।" मुझे याद आता है बीजल शाह का केस, कैसे एक लड़की के अन्धविश्वास को उसके प्रेमी ने चीथड़े-चीथड़े कर दिया था। बीजल के पास खुद को ख़त्म कर देने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा था। उसके बाद प्रेमियों द्वारा धोखा देकर या बहलाकर एमएमएस बनाए जाने के कितने किस्से सामने आने लगे, जैसे अब ये सब बड़े शहरों की आदत होता जा रहा है। इन शहरो की सीमओं से सटे गावों में या यूँ कहीं गांवों में हर दिन सेंध लगाते शहर वीकेंड के लिए अड्डे बन रहे हैं लेकिन वहीं किसी गांव में कोई औरत चुड़ैल बताकर मार दी जाती है। बड़े शहर में कुछ क़र जाने की महत्वाकांक्षा किसी की भी आत्मा को आसानी से कुचल देती है। उस माँ की चेतना मरकर भी इस झूठे इल्जाम को नहीं सह सकी न ही भुला सकी कि वह अपने बच्चो की हन्ता है। वह माँ मरने के बाद भी अपने सम्मान को पाने के लिए जूझ रही है।
'कुछ लव जैसा' की मधु अपनी स्थगित हो चुकी जिन्दगी में फिर से आत्म विश्वास तलाशने निकल पड़ती है। मधु में वो सभी औरतें खुद को देख सकती है जो कुछ नहीं करती सिर्फ हॉउसवाइफ है।" कैसा होता है हर दिन बेडरूम से किचन तक का सफ़र जो न तो कही ले जाता है और न हीं कुछ नया सिखाता है। मधु की समस्या यही है की उसकी कोई समस्या नहीं है। हालाँकि मधु को मिडिल क्लास महिला कहा गया है फिल्म में। मगर असलियत में उन मध्यवर्गीय महिलाओ की तादाद ज्यादा है जो पति के क्रेडिट कार्ड से दो लाख की शॉपिंग करने का सिर्फ सपना ही देख सकती है। यहाँ बात अमाउंट की नहीं है उससे बड़ा सवाल है बिना पति की इज़ाज़त के एक भी पैसा खर्च करना। फिल्म में भी मधु के पति के पसीने छुटने लगते है जह उसे मालूम होता है कि पत्नी ने नई कार खरीद ली है। मधु उस मानसिकता को तोडती है जो अक्सर गृहणियों को सीख में दी जाती है खुश रहा करो। सब कुछ तो है तुम्हारे पास। यह अपने आप में विरोधाभासी है। सब कुछ का मतलब भौतिक सुख सुविधाएं यानी उसी में ख़ुशी तलाशो। इसमें परिवार की सेवा सर्वोपरि है। यानि सुख सुविधाओ का उपभोग भी करो और पति और बच्चों की निस्वार्थ सेवा करते हुए उनकी ख़ुशी को अपना सुभाग्य मानते हुए जीवन जियो। यानी विलासिता और निस्वार्थ सेवा-भाव दोनों को साथ लेकर चलने की उम्मीद की जाती है, जो किसी भी इन्सान के लिए संभव कैसे हो सकता है। विलासिता भी कितनी? उतनी जितनी परिवार के किसी सदस्य की रफ़्तार को बाधित न करे या पति की जेब पर भारी न पड़े। जाहिर है दैवीय चाहत एक दिन इंसानी रूप में तो खुलेंगी ही। जब यह विरोधाभास बढ़ने लगे तो किसी बाबा की शरण में जाकर प्रवचन सुन लो...योग-ध्यान के शिविर में चली जाओ... पॉजिटिव सोच रखो... जैसे विचार थोपे जाने लगते है। मधु ऐसा कुछ नहीं करती वह निकल पड़ती है अपनी संभावनाएं तलाशने। "कभी चाहू जीना कभी मैं भूलूं जीना" के बीच जासूस बनने की रोमांचक और अनजानी राह पर निकल पड़ती है। अंतत कुछ लव जैसा महसूस करते हुए वापस लौटती है। फिल्म में बदली बदली सी नायिका पति को बहुत लुभाती है मगर असल जिन्दगी में ऐसा हो जाए तो पति महाशय की रातों की नींद हराम हो जाए। जाहिर है पत्नी की तो जिन्दगी ही ..........। भले ही क्यों न वह अनुभव, वापस लौटा आत्मविश्वास, थमी हुयी सांसों में लौटी स्फूर्ति और रवानगी उसे अपनी टीनएज बेटी को समझने में मदद करें। जो खुद उस मोड़ पर खड़ी हुयी जीवन के रहस्यों को जानने के प्रयास में कहती है, "सेक्स लव नहीं होता और लव सेक्स नहीं होता"
आज जिस तरह का भारत हम जी रहे है फिल्मे भी वैसी ही बन रही है। विरोधाभासी सोच, गांवों शहरों के बीच बढ़ता गैप, शहरी इंडिया और देशी भारत। दबंग, रोबोट, वांटेड के साथ लव सेक्स और धोखा, रात गयी बात गयी, वेडनेस डे भी बन रही है। दोनों के अपने दर्शक है। टीवी क्विन एकता कपूर की फिल्मो और टीवी धारावाहिक की च्वाइस में भी यह कंट्रास्ट मौजूद है। टीवी में वह जहां एकदम जाहिलियत की हद पार करने वाली कहानियां दिखाती है, वहीं फिल्मे एकदम बोल्ड 'शोर', 'रागिनी एमएमएस' जैसी। चुपके से आ रहे बदलाव के समय का असर हर कही दिख रहा है।
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