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मैं अन्ना नहीं हूं

anna hazare and his agitation

जब देश में कोई बड़ी घटना या दुर्घटना होती है तो पत्रकार होने की वजह से इलेक्ट्रानिक मीडिया की भाषा में मैं उसे क्लोज फ्रेम में देखता हूं..मतलब एकदम नजदीक से..कहा जाए तो खबरों को जीने का मौका मिलता है..हर पल ब्रेकिंग न्यूज की तलाश..प्रतिद्वंदी चैनेल से हर हाल में आगे रहने की कोशिश..ओबी प्लेसमेंट से लेकर रिपोर्टर्स की मूवमेंट तक.. जिंदगी की रफ्तार बढ़ जाती है..और स्पीड कुछ इस कदर होती है कि ज्यादा सोचने समझने का वक्त ही नहीं मिलता है..और लेकिन अन्ना के आंदोलन को दुर्भाग्य से लॉंग शॉट में देखने का मौका मिला..हुआ कुछ यूं कि 16 अगस्त को सुबह जब दिल्ली पुलिस अन्ना को मयूर विहार से गिरफ्तार कर ले जा रही थी..उस दौरान मै वहीं था..अन्ना की गाड़ी के आगे वॉकथ्रू करते वक्त मै कुछ ज्यादा ही एंबिसिएस हो गया । गाड़ी को सादी वर्दी में दिल्ली पुलिस के जवानो ने घेरा हुआ था..मै उनके घेरे को तोड़कर अन्ना के सामने अपनी गनमाइक लगाना चाह रहा था..तभी एक पुलिसवाले ने मुझे जोर का धक्का दिया..मेरा पैर बुरी तरह से मुड़ा और मै रिटायर हर्ट हो गया..पैर में हेयर लाइन फ्रैक्चर हो गया है और मैं पिछले तीन दिनों से घर में बैठकर बस न्यूज चैनेल देख रहा हूं..ये सब देखने के बाद मुझे
देश के क्रांतिकारी संत विवेकानंद की एक बात याद आ रही है.उन्होने एक बार कहा था कि इस दुनिया में अच्छा या बुरा जो भी है वो सब संक्रामक है । देखा जाए तो इस वक्त देश अन्ना के संक्रमण से बुरी तरह से ग्रस्त है..कहा जाय तो देश पर अन्ना का बुखार चढ गया है..हर उम्र.. हर वर्ग.. और हर तबके के लोग मी अन्ना हजारे की टोपी पहने नजर आ जाएंगे..भावनाओं के इस भयंकर तूफान के बीच मै पूरे होशो हवाश में ये कहना चाहता हूं की - मै अन्ना हजारे से सहमत नहीं हूं..मै जानता हूं कि मेरी तरह सोचने वाले बहुत लोग हैं..हां वो तिहाड़ और इंडिया गेट पर नजर नहीं आ रहे है..और ना ही रामलीला मैदान में दिखेंगे.. लेकिन उनकी संख्या अन्ना के साथ नजर आने वाले लोगों से बहुत ज्यादा है..

यहां एक बात साफ कर देना बहुत जरुरी है कि- मै अन्ना हजारे नहीं हूं इसका मतलब ना ये कत्तई नहीं है..मै उन्हे नापसंद करता हूं..उनका जीवन उनकी जीवनशैली निश्चित तौर पर अनुकरणीय है..74 साल के इस जवान की उर्जा पर रस्क होता है..जब कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी उन्हे तुम कहते हैं तो गु्स्सा मुझे भी आता है..मनीष के उस बयान की जितनी भी निंदा की जाए कम है...मै भी शिद्दत से यह मानता हूं कि जिस बदलाव की बात किशन बाबू राव हजारे उर्फ अन्ना कर रहे हैं वो हिंदुस्तान की सबसे बड़ी जरुरत है..लेकिन मै इस बात से कत्तई सहमत नहीं हूं कि वो बदलाव इस तरीके से हो सकता है..पहली बात तो ये है कि ये विरोध प्रदर्शन है..इसे क्रांति समझने की बेवकूफी नहीं करना चाहिए..और दूसरी बात ये कि ये हिंदुस्तान है..मिस्र नहीं..हम एक मजबूत लोकतंत्र हैं..इमरजेंसी के बाद जनता ने इंदिरा गांधी को दिखा दिया है कि इसके मूलभूत ढांचे से छेंड़छांड़ करने वालों का हस्र क्या होता है । मेरी समझ से भावनाओं के ज्वार भाटा में कुछ हजार लोगों को बह जाने से इतिहास नहीं बदले जाते..और अगर आपकी विल्डिंग के कुछ दीवारों में हेरफेर कर काम चल सकता है तो पूरी बिल्डिंग को गिराने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए..और ना ही हमे उन लोगों के हाथों का हथियार बनना चाहिए जो सिर्फ इसलिए पुरानी बिल्डिंग को गिराना चाहते हैं क्योंकि उनका नाम और चेहरा भी इतिहास के आइने में दिखाई पड़े..अन्ना बड़े हैं..बुजुर्ग हैं..उन्होने बहुत सी लड़ाईयां लड़ीं हैं..लेकिन यहां सवाल देश के सवा सौ करोड़ लोगों की है..कुछ हजार लोगों का रेला औऱ कुछ सो कॉल्ड सोफेस्टिकेटेड लोगों की रहनुमाई में देश के भविष्य को नहीं सौंपा जा सकता है।

पहला सवाल तो ये है कि आखिर सवा सौ करोड़ लोगों के लिए फैसला करने का हक आखिर सिविल सोसाइटी के इन आठ लोगों को किसने दिया..दूसरी बात ये है कि अगर इस जनलोकपाल के दायरे में पटवारी से प्रधानमंत्री तक आ जाते हैं..न्यायपालिका को भी इसके भीतर रख दिया जाता है तो हम क्यो अन्ना की इस बात पर यकीन कर लें कि जनलोकपाल का जो प्रतिनिधि होगा वो दूध का धुला हुआ होगा..अन्ना भले ही जनलोकपाल से 60-65 फीसदी भ्रष्टाचार खत्म करने की गारंटी दे रहे हों..लेकिन मेरी समझ से इससे भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा..बस उसका केंद्र बदल जाएगा..हमे नहीं भूलना चाहिए कि महात्मा गांधी ने कहा था कि स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए..उनका सबसे बड़ा सपना था आखिरी आदमी तक सरकार और सहायता की पहुंच सके..लेकिन आजादी है 65 साल बाद भी ऐसा नहीं हुआ..आज शायद लोगो पर अन्ना का संक्रमण इसलिए हो गया है क्योंकि भ्रष्टाचार से जूझ रहे देशवासियों को अन्ना आजादी के 65 साल बाद करप्शन से 65 फीसदी आजादी दिलाने की गारंटी दे रहे है..मेरा सवाल बस यही है..इस गारंटी पर हमे यकीन क्यो करना चाहिए..हो सकता है कि अन्ना संत पुरुष हों..पहली नजर में वो ऐसा दिखते भी है..लेकिन जिन लोगों के हाथ जनलोकपाल की कमान होगी..वो सब क्या अन्ना जैसे होंगे..क्या लोकतांत्रिक ढांचे में किसी को इसकदर ताकतवर बना देना ठीक है..अगर किसी को इतना ताकतवर बना दिया जाए तो क्या गारंटी है कि वो भ्रष्ट नहीं होगा..जॉर्ज बर्नांड शॉ की एक लाइन जो मुझे बहुत पसंद है..और कई केस में मैने इसकी सच्चाई को महसूस भी की है..उन्होंने कहा था कि – सत्ता और शक्ति सबको एक जैसा बना देती है...हमें क्यो यकीन करना चाहिए कि जनलोकपाल की सत्ता जिसके हाथ होगी. वो महात्मा गांधी जैसा होगा..और अगर उसके अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरु कर दिया तो सोचिए हालात कितने बदतर हो जाएंगे..ये जनसैलाब और जनसमर्थन ऐसा नहीं है कि देश में ऐसा पहली बार किसी को मिल रहा है..मै तो उस समय पैदा भी नहीं हुआ था..लेकिन जहां तक उस दौर के लोगों से सुनकर..और पढ़कर जो समझ बनती है उससे तो यही साबित होता है कि जेपी का आंदोलन इससे कहीं ज्यादा बड़ा था..लेकिन उसका हस्र भी हिंदुस्तान ने देखा है..जेपी के सिपहसालारों का सत्ता की मलाई के लिए लड़ाई सबके सामने हैं.. यही नहीं जेपी की यूनिवर्सिटी से निकल कर आए बड़े बड़े लोगों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे..जेपी के कुछ चेलों क तो जेल जाना पड़ा..संपूर्णक्रांति अधूरी रह गई..गलती जेपी की नहीं थी..उनकी सोच तो बड़ी पाक थी..लेकिन ये सत्ता ऐसी सुंदरी का नाम है जिसके सामने बड़े बड़े विश्वामित्र बिछ जाते हैं..इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि आजाद हिंदुस्तान में लोकतंत्र की सबसे बड़ी गुनहगार इंदिया गांधी की बहू आज देश की सबसे ताकतवर शख्सियत हैं..वही इंदिरा गांधी जिन्हे देश की जनता ने इंमरजेंसी के बाद औकात दिखा दी थी..और आज अगर देश के लोगों ने सत्ता कांग्रेस के हाथों सौंप रखी है तो इसका मतलब ये है कि जनता सबको समझ चुकी है..विकल्प के तौर पर कोई खरा नहीं उतर पाया..ना जेपी का सोच..ना वीपी सिंह का आंदोलन..ना दलितों और शोषितों की मशाल लेकर चलने का दावा करने वाले क्षेत्रिय छत्रपों की समझ...

खैर अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि किया क्या जाए..जरा गौर कीजिए अन्ना की इस आंधी में कुछ तस्वीरें ऐसी हैं जो धुंधली पड़ गई हैं..जरा उन्हे गौर से देखिए..सौमित्र सेन का हटाया जाना..आजाद देश की अपने तरह की अनोखी घटना है..कर्नाटक से यदियुरप्पा का जाना..ये दो ऐसी घटनाए हैं जो साबित करती हैं कि हमारे पास जो कानून है उसे मजबूती से लागू करने वाला चाहिए..लोकपाल भी धारदार हो सकता है कर्नाटक उसका उदाहरण है..मेरी समझ से जनलोकपाल से कुछ नहीं होगा जिस शख्स के हाथ में सत्ता होती है..उसकी नियत कैसी है..सबकुछ इसी पर निर्भर करता है..नहीं तो टीएन शेषन से पहले चुनाव आयोग की हैसियत क्या थी..ये सबको पता है। हम अगर गौर से देंखे तो तस्वीर इतनी भी बुरी नहीं है..हमारा समाज  बेहतर बनता जा रहा है..हां स्पीड को लेकर सवाल हो सकता है..जरुरत है स्पीड बढाने की लेकिन रफ्तार इतनी भी नहीं होनी चाहिए कि हम उसपर काबू ही ना कर पाए..इसमे कोई शक नहीं कि अन्ना ने जनआंदोलन खड़ा किया है..भ्रष्टाचार पर बड़ी बहस शुरु की है..तिहाड़ से निकलने के बाद अन्ना के साथ जो जनसैलाब उमड़ पड़ा है उसकी बेचैनी को समझना पड़ेगा..आज के दौर में देश में कोई हीरो नहीं है..युवाओं के सामने कोई आदर्श नहीं है..हमारे बेचैन नौजवानों को अन्ना में हीरो नजर आ रहा है..जो चौहत्तर साल की उम्र में एक सोच और समझ के साथ तनकर खड़े होने की हिमाकत करता है..सरकार की नाक में दम कर देता है..युवाओं को इंकार से भरी चीख..आंदोलन की भाषा आकर्षित करती है..हम हिंदुस्तानी भावनाओं में बहुत जल्दी बह जाते हैं..लेकिन समझदारी ये कहती है कि भावनाओं से भविष्य नहीं बदला जा सकता है..हमे सोचने की जरुरत है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम भावनाओं में बह कर इस्तेमाल हो रहे हैं..अगर 65 फीसदी करप्शन हटाने की गारंटेड योजना लेकर बाजार में निकले अन्ना हजारे के जनलोकपाल ने इन युवाओं को निराश किया तो क्या होगा..आने वाले सालों में यही सबसे बड़ा सवाल बनने वाला है।

(लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं)

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