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फिल्में इमोशन्स की फैक्ट्री हैं : संदीप मारवाह

interview of sandeep marwah

 

मारवाह फिल्म अकादमी, प्रोड्क्शन हाउस और इनके प्रमुख संदीप मारवाह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। नोएडा फिल्म सिटी के संस्थापक संदीप मारवाह बहुमुखी प्रतिभा के धनी शख्स हैं। वह फिल्मी दुनिया से बीते 22-23 साल से जुड़े हैं और कई फिल्मों के निर्माता रहे हैं। भारत के बदलते फिल्मी परिदृश्य, मारवाह स्टूडियो की स्थापना और उनकी दूसरी योजनाओं के बारे में उनसे बात की पीयूष पांडे ने।
 

सवाल-संदीप जी, बीते 21-22 साल से आप इंडस्ट्री का हिस्सा हैं तो इन सालों में रुपहले पर्दे की दुनिया कितनी बदल गई है। सबसे बड़ा बदलाव किस तरह का है?
 
जवाब-देखिए, पूरी दुनिया ही बदल गई है। सबसे बड़ा बदलाव तो आया है कि पहले फिल्म 35 एमएम में शूट होती थी, अब धीरे धीरे डिजीटल पर शूट हो रही है। आधुनिक तकनीक ने फिल्म निर्माण को सस्ता-सुलभ बनाया है और इसका सबसे बड़ा असर यह हुआ है कि पहले लोग फिल्म बनाने का सिर्फ ख्वाब देखा करते थे, अब फिल्में बना पा रहे हैं। आज हर आदमी फिल्म बनाने की बात कह रहा है। फिल्में इमोशन्स की फैक्ट्री हैं और इस माध्यम के जरिए लोग अपनी बात कहना चाहते हैं। एटीट्यूट और एप्टीट्यूड दोनों बदले हैं।
 

सवाल-नयी तकनीक ने फिल्म निर्माण को कितना आसान बनाया है?
 
जवाब-बहुत आसान बनाया है लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि फिल्म तकनीक से नहीं बनती। फिल्म दिमाग से बनती है। फिल्म आर मेड फ्रॉम माइंड्स। उपकरण सिर्फ फिल्मकार के हाथ में औजार हैं। तकनीक तो बदलेगी ही। आठ एमएम, 16 एमएम फिर 35 एमएम। वीएचएस,बीटा, डिजीटल। इसके बाद लेजर भी आ रहा है। तकनीक कितनी भी बदल जाए मुद्दा यह है कि कंटेंट क्या है। फिल्म लेखन की कला आती है या नहीं और उसे बड़े पर्दे पर दर्शाने की कला आती है या नहीं। डिजीटल होने से सस्ती हुई है फिल्म मेकिंग। संख्या बढ़ गई है फिल्मों की-इसमें शक नहीं।
 

सवाल-आपने भी कई फिल्में प्रोड्यूस की हैं। कई फिल्मों के निर्माण से आप जुड़े रहे हैं। फिल्म निर्माण के अपने अनुभव के आधार पर आप क्या कहेंगे कि बतौर प्रोड्यूसर सबसे बड़ी चुनौती क्या होती है।
 
जवाब-छोटे बजट की फिल्में बनाना आसान है, लेकिन बेचना मुश्किल। भारत के दर्शक अब इतने स्टार ओरिएंटेड हैं कि कोई भी फिल्म बड़े हीरो-हीरोइन के बिना टिकट खिड़की पर जबरदस्त ओपनिंग नहीं ले पाती। फिल्में बनाकर डिब्बे में बंद कर लेना समझदारी नहीं। बड़ी फिल्मों का दर्शक वर्ग व्यापक होता है। उनके पास बड़ा मार्केटिंग बजट होता है, जिससे दर्शकों को फिल्म के बारे में जानकारी मिल पाती है। छोटी फिल्मों के लिए छोटा टारगेट लेकर चला जा सकता है। कई फिल्मकारों ने क्षेत्रीय बाजार को ध्यान में रखकर फिल्म निर्माण शुरु किया है,जो ठीक भी है। छोटे बजट के फिल्मकारों को इस बात को समझने की जरुरत है कि वे अपना बजट बेहद सीमित रखें और मार्केटिंग की व्यवस्था बनाने की कोशिश करें।
 

सवाल-छोटे बजट की कई फिल्में आजकल सफलता अर्जित कर रही हैं तो आपने इस दिशा में कुछ सोचा है। या कुछ काम किया है।
 
जवाब-हमने कुछ फिल्में बनाई हैं। नए कलाकारों-नए तकनीशियनों और नए विषय के साथ। अडियल। कॉफी हाउस। चोरी का माल मोरी में। नाजुक सा मोड़। और रियासत। रियासत राजेश खन्ना की आखिरी फिल्म है।
 

सवाल-बीते कई साल से आप फिल्म संबंधी कोर्स का प्रशिक्षण दे रहे हैं। ट्रेनिंग के तौर तरीकों में भी क्या काफी बदलाव आया है?
 
जवाब-बहुत बदलाव आया है। मेरी खुशनसीबी यह रही कि हमने बदलाव को समझा,स्वीकारा और पाठ्यक्रम में लगातार सामयिक बनाए रखा। 80 फीसदी प्रैक्टिकल और सिर्फ 20 फीसदी थ्योरी। मेरा मानना है कि फिल्म परफोर्मिंग आर्ट है। आपको कैमरा चलाना आना चाहिए। एक्टिंग करनी आनी चाहिए। आज 19 साल हो गए इंस्टीट्यूट को चलते हुए। अभी 76 वां बैच चल रहा है। 80 फीसदी से ज्यादा छात्र मीडिया में काम कर रहे हैं। मैं बीते 20 साल से फिल्म इंस्टीट्यूट का डायरेक्टर हूं। दस हजार मीडिया प्रोफेशन्ल्स तैयार कर चुका हूं। हमारे यहां 90 मुल्कों से छात्र पढ़ने आए हैं। यह भी अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
 

सवाल-फिल्में आम भारतीयों के मनोरंजन का सबसे मुख्य माध्यम है। देश के लाखों युवा फिल्म बनाने का ख्वाब लिए जी रहे हैं। बावजूद इसके फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखाने वाले इंस्टीट्यूट मुट्ठी भर हैं। क्या वजह है?
 
जवाब-बिलकुल सही कहा आपने। पहले मैं आपको कुछ आँकड़े देता हूं। भारत में रोज़ डेढ़ करोड़ लोग सिनेमा देखते हैं। करीब 12 हजार थिएटर हैं। हम लोग 500 करोड़ टिकट बेचते हैं हर साल। और इंडस्ट्री का टर्नओवर दस हजार करोड़ के पार हो चुका है। 162 मुल्कों में भारतीय सिनेमा पहुंचता है। हस साल हम 1100  फीचर फिल्में बना रहे हैं। बावजूद इसके कुल मिलाकर पांच या छह फिल्म इंस्टीट्यूट हैं, जिन्हें आप ए क्लास कह सकते हैं। दरअसल, फिल्म निर्माण की ट्रेनिंग एरोनेटिक्स यानी विमान उड़ाना सीखाने के बाद सबसे महंगी ट्रेनिंग है। मैं आज 100 करोड़ रुपए का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करके 100 रुपए घंटे के हिसाब से ट्रेनिंग दे रहा हूं तो इसकी बड़ी वजह है कि यह मेरा जुनून है। जो कोर्स सुभाष घई के इंस्टीट्यूट में 16 लाख का है, वो हमारे यहां साढ़े पाँच लाख का। यह मेरा पैशन नहीं होता तो मैं कुछ दूसरा काम करता। आखिर, पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट ने इतने सालों में कहीं कोई फ्रेंचाइजी या संस्था क्यों नहीं खोली? इसी का नतीजा है कि गली-कूचे में लोगों ने अधकचरी जानकारी के साथ फिल्म ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट खोल दिए। छात्रों को आधी-अधूरी जानकारी देकर इंडस्ट्री में भेज दिया जाता है, और वे फिर इंडस्ट्री और इंस्टीट्यूट दोनों को गाली देते हैं। देखिए, आप लेखक हैं तो चंद रुपये खर्च कर अपनी किताब प्रकाशित कर सकते हैं। पेंटर है तो आराम से पेटिंग बना सकते हैं। मूर्तिकार हैं तो पत्थर लाइए और छैनी हथौड़ी से तराश कर उसे एक रूप दे डालिए। लेकिन, फिल्म अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त किंतु महंगा माध्यम है। फिल्मकार को अपनी टीम का हर आदमी मंजा हुआ चाहिए। इस बिजनेस में निवेश के मुताबिक रिटर्न नहीं है। भारत में सिर्फ वे ही इंस्टीट्यूट सफल हो सकते हैं, जिनके पास ट्रेनिंग सेटअप के साथ अपना प्रोफेशनल स्टूडियो हो। हमारी सफलता की बड़ी वजह यही है।
 

सवाल-मैंने पढ़ा था कि कई नए गायकों को मारवाह स्टूडियों ने प्रोत्साहित किया और उनके लिए एलबम प्रोड्यूस किए तो क्या यह पॉलिसी नए फिल्मकारों के लिए भी है।
 
जवाब-हमारे इंस्टीट्यूट में बहुत काम हो रहा है। लेकिन सिर्फ ट्रेनिंग फिल्मों से अलग बात करें तो मैंने 1800 शॉर्ट फिल्में प्रोड्यूस की हैं, और इसमें तकरीबन 1500 नए डायरेक्टर्स को चांस दिया है। फीचर फिल्मों के निर्देशकों को भी हम सहयोग कर रहे हैं।
 

सवाल-चलिए, एक निजी सवाल। थोडी हल्की भाषा में पूछूं तो आप आइटम क्या हैं? आप मारवाह इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं। मारवाह प्रोडक्शन हाउस के प्रमुख हैं। प्रोड्यूसर हैं। आप रंगकर्मी रहें हैं और नादिरा बब्बर समेत कई जानी मानी हस्तियों के साथ नाटक किए हैं आपने। आपने विधिवत गायन की शिक्षा ली है। आप कई वाद्य यंत्र बजाना जानते हैं। आप यूथ कांग्रेस के साथ कई साल तक जुड़े रहे। कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों के सदस्य हैं। दिल्ली की पेज थ्री पार्टी में भी आप दिखायी देते हैं। कई कार्यक्रमों में मेरी आपसे मुलाकात हुई। तो क्या है आपकी रुचि वास्तव में। और इतनी चीजों को साधते कैसे हैं?
 
जवाब-देखिए, सच कहूं तो काम करने में मज़ा आता है मुझे। मैंने अपने पिता से दो बातें सीखीं। एक वक्त का प्रबंधन यानी टाइम मैनेजमेंट। और दूसरा मल्टीटास्किंग। लोग दिन में दो चिट्ठियां लिखते हैं और थक जाते हैं। लेकिन मैं एक साथ कई कामों को कर पाता हूं। इसे आप मेरी विशेष योग्यता कह सकते हैं। अभी आप बैठे हैं, लेकिन मैंने चैक साइन कर दिए। विदेशी डेलिगेट्स की भी बात सुन ली। जयश्री अरोड़ा आपके सामने आईं तो उनसे भी बात कर ली। मल्टीटास्किंग आर्ट है। वैसे, आपने आपने जिन रुचियों या कामों का जिक्र किया तो मैं बता दूं कि मैं फोर्स में भी रहा आठ साल तक। बटालियन कमांडर नियुक्त हुआ था, डिस्ट्रिक कमांटर तक पहुंचा जो फुल कर्नल रैंक है। आठ परेड कमांड किए उस दौरान। 26 जनवरी को राष्ट्रपति के सामने हाथ में तलवार दिए सलामी देना मेरा एक सपना था। मैंने वो सपना पूरा किया और फिर वो जॉब छोड़ दी। आज मैं पाँच शैक्षिक संस्थाओं का डायरेक्टर हूं। तीन दूसरी संस्थाओं का प्रमुख हूं। बाकी फिल्मों का प्रोडक्शन, कार्यक्रमों में शिरकत वगैरह तो होता ही है।
 

सवाल-आप नोएडा फिल्म सिटी के संस्थापक रहे हैं। तो यह ख्याल कैसे आया था मन में। और यह पूरी परियोजना कैसे परवान चढ़ी। बीते 25 साल में तो फिल्म सिटी का पूरा चेहरा ही बदल गया है।
 
जवाब-मैंने 1986 में उत्तर भारत की पहली और देश की चौथी फिल्म सिटी का सपना देखा। दिल्ली में फिल्म सिटी की योजना बनाई थी, लेकिन तमाम कोशिशों के बाद हर जगह से हताशा मिली। क्योंकि 100 एकड़ की जमीन किसी एक प्रोजेक्ट के लिए वहां सेंक्शन कराना आसान नहीं था। उस वक्त उत्तर भारत में फिल्म संस्कृति नहीं थी और मैंने स्थापित सेंटरों यानी मुंबई, चेन्नई और कलक्ता में काम नहीं किया था। तो उस वक्त निराशा में मैं नोएडा के चेयरमैन योगेश चंद से मिला। उन्हें मेरा प्रोजेक्ट बहुत पसंद आया। फिर मैं लखनऊ गया और तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह से मिला। नवंबर 87 में प्रोजेक्ट पास हो गया। उसके छह महीने बाद अलॉटमेंट हुए। हमें तीन साल का समय लगा स्टूडियो बनाने और चलाने में। उस वक्त नोएडा को लोग जानते ही नहीं थे। अलबत्ता मजाक में नोएडा के बारे में कहते थे-नो आइडिया। फिर एक सचाई यह भी थी कि सन् 74-75 के आसपास गाजियाबाद में भी फिल्म सिटी बनाने का प्रस्ताव था। सुनील दत्त जैसे दिग्गज उससे जुड़े थे लेकिन योजना ठप हो गई। तो नोएडा फिल्म सिटी को मूर्त रुप देने में खासी मशक्कत करनी पड़ी मुझे। शुरुआती दौर में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर, तमाम कार्यक्रमों में शिरकत कर, विज्ञापन कर इस योजना के बारे में मैने बताया। 10 मार्च 1991 को यहां स्टूडियो खोला। उस वक्त लोगों को फिल्म निर्माण की बारीकियों के बारे में कुछ पता नहीं था। तो जरुरत महसूस हुई ट्रेनिंग सैटअप की। जुलाई 1993 में हमने भारत का चौथा और निजी क्षेत्र का पहला फिल्म ट्रेनिंग स्कूल खोला। उस वक्त मुझे महसूस हुआ कि लोगों की नजर में विश्वसनीयता हासिल करने के लिए मुझे मुंबई से जुड़ना होगा। मैंने मुंबई,कोलकाता,चेन्नई और हैदराबाद की इंडस्ट्री से नोएडा फिल्म सिटी का तार जोड़ा। लोगों का यहां शूटिंग के लिए आमंत्रित किया। करीब 250 से ज्यादा लोकेशन्स तैयार कीं, जिन्हें हम डायरेक्टर्स को दिखाते थे। मंदिर-मस्जिद,फॉर्म हाउस क्या नहीं है हमारे पास। हम लोगों ने बीते बीस साल में 4500 टेलीविजन प्रोग्राम 50 से भी ज्यादा चैनल के लिए तैयार किए हैं। 125 फीचर फिल्में बनाईं। 5000 से ज्यादा ट्रेनिंग फिल्में बनाई हमने। मारवाह स्टूडियो मैटरनिटी हॉस्पीटल बन गया चैनल पैदा करने का। ज़ी टीवी, सहारा, एनडीटीवी, स्टार न्यूज, जैन टीवी, प्रज्ञा,महुआ, ईटीवी सभी का जन्म मारवाह स्टूडियो से हुआ। ये भी एक अंतरराष्ट्रीय रिकॉर्ड है।
 

सवाल-आपको ग़ज़ल का खासा शौक है। गाहे बगाहे आप कार्यक्रमों में ग़जल पढ़ते दिखते हैं। तो कौन पसंदीदा गजल गायक हैं।
 
जवाब- मेहदी हसन, जगजीत सिंह और गुलाम अली को सुनना बहुत पसंद है। मुकेश का भी मैं फैन रहा हूं।
 

सवाल-चलिए आखिरी सवाल। आपकी नयी योजना क्या हैं।
 

जवाब-मैंने कई संस्थाएं तैयार की है। आज मेरा बड़ा परिवार है, जिसमें 12-13 हजार लोग जुड़े हैं। उनके परिवारों को जोड़े दें तो मेरे साथ एक लाख से ज्यादा लोग हैं। तीस मीडिया संस्थाओं से जुड़ा हुआ हूं। हमने हाल में वर्ल्ड पीस डवलपमेंट और रिसर्च फाउंडेशन बनाई तो उसे फौरन यूनाइटेड नेशन्स से मान्यता मिल गई। आजकल विश्व शांति से जुड़ी परियोजना के साथ मिलकर काम कर रहा हूं। मुझे हाल में अंतराष्ट्रीय मीडिया गुरु का खिताब मिला है।कोरिया में अम्बेसेडर ऑफ पीस का खिताब दिया गया। मैं अम्बेसेडर ऑफ वेल्स हूं। मीडिया में रहने के नाते मैं जानता समझता हूं कि हमारी आम लोगों से ज्यादा जिम्मेदारी है, और उन्हीं कर्तव्यों के निर्वहन में लगा हूं।

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