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बड़े खतरनाक ‘गड्ढे’ हैं मासूमों की राह में

दीपक पालीवाल

मासूम बच्चों का बचपन खतरे में है. घर हो या स्कूल या फिर कोई और जगह. उनके जीवन की हर डगर पर खतरनाक गड्ढे बने हैं, जिनमें वो अक्सर गिरकर संभल नहीं पाते और कई बार जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं. कभी लापरवाही से हुए हादसों का शिकार होते हैं, कभी राह भटका दिए जाते हैं तो कभी परीक्षा के दानव का निवाला बनते हैं, कभी उनकी मासूमियत उनकी दुश्मन बन जाती है तो कभी उनके कोमल जिस्म के लालची भेड़िये अपना शिकार बना लेते हैं.

पिछले दिनों अहमदाबाद पुलिस ने एक मां के चंगुल से चार भाई-बहनों को छुड़ाया. सात साल तक कैद में रहे इन बच्चों की मां से जब इस बारे में पूछा गया तो उसका जवाब था कि वो अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर फिक्रमंद थी इसीलिए वह अपने बच्चों को बाहर नहीं निकलने देती थी. जाहिर है सात सालों तक घर में बंद रहने की वजह से इन बच्चों का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य काफी हद तक प्रभावित हुआ.

लेकिन क्या वाकई इतने बुरे हालात हैं कि एक मां को अपनी ममता का दामन छोड़कर अपने बच्चों को कैद में रखने तक की नौबत आ गई ? अगर कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो शायद स्थिति वाकई भयावह हो चुकी है. बच्चों के अपहरण की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. 2006 में उत्तर प्रदेश में 3649 बच्चे गायब हुए इनमें से 3016 बच्चे 10 से 18 साल की उम्र के थे. बिहार में अपहरण की कई वारदातों में अगवा बच्चों को जान से हाथ धोना पड़ा है. देशभर में कई ऐसे गिरोह सक्रिय हैं जो बच्चों को यौन शोषण और भीख मंगवाने के लिए अगवा करते हैं, तो कई ऐसे नापाक संगठन भी हैं जो बच्चों को अगवाकर उन्हें आतंकवाद और नक्सलवाद की अंधी गलियों में भटकने के लिए मजबूर करते हैं.

बच्चों पर जुल्म की दास्तां की सबसे बड़ी कड़ी नोएडा का निठारी हत्याकांड शायद इस सदी के भारत का सबसे क्रूर, नृशंस, निर्मम और बर्बर सच है. निठारी एक ऐसा मामला बनकर सामने आया जिसने देश की सुरक्षा व्यवस्था की कलई खोल दी. डेढ़ साल तक एक ही इलाके में एक के बाद एक दर्जनों बच्चे गायब हो गए और पुलिस ने केस तक दर्ज नहीं किया. कौन जाने, इस देश में और कितने निठारी कांड पनप रहे हों ?

भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के एक सर्वे के मुताबिक देश में हर तीन में से दो बच्चे शारीरिक दुराचार का शिकार होते हैं. इस रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई कि सिर्फ लड़कियां ही दुर्व्यवहार का शिकार नहीं होतीं, बल्कि लड़के भी उतनी ही संख्या में शिकार होते हैं. दुर्व्यवहार के लिए अक्सर वो लोग दोषी होते हैं जो भरोसे के होते हैं. इनमें अभिभावक, रिश्तेदार और टीचर शामिल हैं. भारत में दुनिया के 19 फीसदी बच्चे रहते हैं और इस समय देश की आबादी का करीब एक तिहाई हिस्सा 18 साल से कम उम्र के बच्चों का है. रिपोर्ट के मुताबिक करीब 40 फीसदी बच्चों को सुरक्षा और देखभाल की जरूरत है. 

अपहरण और आतंकवाद के बाद अब मासूम बच्चों की जान के पीछे गड्ढे पड़े हुए हैं. चाहे वो खेतों में बने बोरवेल हों या सड़कों पर खुले पड़े गटर. लापरवाही से खुले छोड़ दिए जाने वाले इन गड्ढों में आए दिन कहीं न कहीं कोई बच्चा जिंदगी के लिए जंग लड़ता नजर आता है लेकिन इनमें से कई बच्चे कुरुक्षेत्र के ‘प्रिंस’ और आगरा की ‘वंदना’ की तरह नसीबवाले नहीं होते और वो जिंदगी की जंग हार जाते हैं। कई बार तेज रफ्तार इनकी जिंदगी पर हमेशा के लिए ब्रेक लगा देती है. स्कूली बसों और गाड़ियों के दुर्घटनाग्रस्त होने की खबरें बढ़ती जा रही हैं. वडोदरा से करीब 60 किलोमीटर दूर बोडेली कस्बे में गुजरात राज्य परिवहन निगम की एक बस बेकाबू होकर नर्मदा नहर में गिर गई. इस बस में सवार 41 बच्चे मौत के गाल में समा गए. पीड़ित परिवारों में किसी का चिराग बुझा तो किसी की रोशनी छिन गई. इससे पहले मुंबई में स्कूल बस में एलपीजी सिलेंडर फटने से चार स्कूली बच्चों की मौत का मामला हो या फिर मेरठ में मिड-डे मील बनाते वक्त चार बच्चों के आग में झुलसने की घटना.
स्कूल कैंपस में गोलीबारी की हिंसक घटनाएं सामने आ रही हैं. चाहे वो गुड़गांव का नामीगिरामी इंटरनेशनल स्कूल हो या फिर सतना का सरकारी हाईस्कूल. स्कूल जाने की उम्र में ही बच्चों को अगर ऐसी किसी घटना से दो-चार होना पड़े तो यह उसके मानसिक विकास पर बुरा असर डाल सकता है. और तो और स्कूलों में टीचरों का व्यवहार दिन-ब-दिन हिंसक होता जा रहा है, वे बच्चों के दोस्त कम, दुश्मन ज्यादा बनते जा रहे हैं. स्कूलों में छात्रों के साथ बेरहम पिटाई की घटनाएं आए दिन देखने और सुनने को मिल रही हैं। इसके चलते कई बार तो छात्रों की जिंदगी दांव पर लग जाती है. दिल्ली में रिंकी नाम की दसवीं कक्षा की छात्रा को उसकी टीचर ने इस कदर पीटा कि उसने अस्पताल में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया. पंजाब के संगरूर में एक मदरसे में पढ़ने वाले पांच साल के मासूम के पूरे बदन पर जलती लकड़ी से कई गहरे निशान बनाए गए. सोचिए, ऐसा करते समय उस नापाक मौलवी के हाथ नहीं कांपे. उस बच्चे की गलती इतनी भर थी कि वो सुबह की नमाज अदा करना भूल गया था.

देशभर में शायद ही ऐसा कोई शहर या कस्बा होगा जहां से परीक्षा के दिनों में बच्चों के खुदकुशी करने की दुखद खबरें न आती हों। इसे अभिभावकों की अपने बच्चों से उम्मीद से परे उम्मीद करने का नतीजा कहें या फिर अतिरिक्त पढ़ाई का बोझ, कि जिस परीक्षा के जरिए बच्चों को जिंदगी की अगली सीढ़ी पर कदम रखना होता है, वो परीक्षा उनकी मौत का परिणाम बनकर ही उनका पीछा छोड़ती है। कई बार तो अमानवीय टिप्पणी उनके मासूम दिल पर चोट कर बैठती है और वे ग्लानि में आकर जान दे देते हैं.

बच्चों को समाज के भविष्य के निर्माता माना जाता है. कहा जाए तो बच्चे हर समाज की बुनियाद हैं. लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि आजादी के साठ साल बाद भी इस देश में बच्चों की हालत काफी दुखद है. खेलने-पढ़ने की उम्र में लाखों-करोड़ों मासूमों के नन्हें हाथ मजदूरी करने के लिए अभिशप्त हैं. देश में अठारह साल से कम उम्र वालों की संख्या 39 करोड़ 80 लाख है. इसमें से 21 करोड़ की उम्र 14 साल से भी कम है. जाहिर है देश के इस बड़े वर्ग की हालत में सुधार किए बगैर राष्ट्र का समग्र विकास मुमकिन नहीं है. इसलिए सरकारी प्रयासों के साथ सामाजिक स्तर पर भी हर किसी को सकारात्मक भूमिका निभानी होगी.

 

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