हाल ही में प्रकाशित उनकी जीवनी "योग गुरु स्वामी रामदेव(प्रभात प्रकाशन)" के अनुसार उन्होंने गांव के विद्यालय में पांचवीं कक्षा तक अध्ययन किया और एक प्रखर छात्र के रूप में अपना स्थान बनाया। इसके बाद वे निकट के गांव शहजादुर के विद्यालय में दाखिल हुए और आठवीं कक्षा तक अध्ययन किया। चूंकि गांव में बिजली की व्यवस्था नहीं थी, अत: उन्होंने किरोसिन से जलनेवाले लैंप को रोशनी में अध्ययन किया। उनके पिता द्वारा खरीदी गई पुरानी पाठ्य पुस्तकें ही उनकी पाठ्य सामग्री होती थीं। उनके परिवार में उनके माता-पिता, भाई और बहन थे; पर अब उन सबों के साथ उनका संबंध कुछ खास नहीं रह गया है।
रामदेव के बचपन ने उनके भविष्य के जीवन पर एक चिरस्थायी प्रभाव डाला था। जब वे बालक थे, उनके शरीर का बायां हिस्सा पक्षाघात से ग्रस्त हो गया। उनके अनुसार, योग के माध्यम से ही उन्होंने अपने शरीर की संपूर्ण सक्रियता प्राप्त की और पूर्णत: स्वस्थ हो सके। ऐसा प्रतीत होता है कि रामदेव की पक्षाघात पीड़ित दशा और योग द्वारा इसके उपचार ने उन्हें जीवन के लय-ताल के प्रति एक दूसरा रुख अपनाने को प्रेरित किया।
इस असामान्य अनुभव ने उन्हें अपने जीवन को एक ऐसे पथ ले जाने को प्रेरित किया, जो उन्हें ज्ञान की तह और उनके जीवन के वास्तविक उद्देश्य की ओर ले जा सकता था। शीघ्र ही यह युवक परिवार, समाज और औपचारिक शिक्षा के बंधनों से परे सामाजिक रूप से लाभदायी भूमिका के एक नए आयाम की खोज करने के लिए जिज्ञासु हो गया। जैसा वे बाद में स्मरण करते हैं - 'मैंने जीवन के आरंभ में ही यह सीखा कि हमारे देश में स्वास्थ्य, शिक्षा और संपत्ति वितरण में गहन असंतुलन है।' इस प्रकार समस्त रुकावटों और अनिश्चितताओं के साथ इस बालक की तीर्थ-यात्रा शुरू हुई।
किशोर रामदेव के आध्यात्मिक कैरियर में पहला निर्णायक मोड़ तब आया जब उन्होंने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई पूरी करने के बाद घर छोड़ दिया और हरियाणा के रेवाड़ी जिले के किशनगढ़ घसेदा के खानपुर गांव में आचार्य बलदेव द्वारा स्थापित गुरुकुल से जुड़ गए। आचार्य ने अपने नए शिष्य को पाणिनि के संस्कृत व्याकरण और वेद एवं उपनिषद् के ज्ञान से परिचय करवाया। इसी समय, उन्होंने गहन आत्मानुशासन और ध्यानमग्नता का अभ्यास भी शुरू किया। यद्यपि वे आर्यसमाज के साथ औपचारिक रूप से नहीं जुड़े थे, फिर भी इस दौरान वे स्वामी दयानंद के आदर्शो से अत्याधिक प्रभावित थे।
रामदेव ने संसार से वैराग्य ले लिया और सन्यासी का चोगा पहना तथा 'स्वामी रामदेव' का नाम धारण किया। वे स्मरण करते हैं, 'मैं किसी अन्य की प्रेरणा अथवा प्रभाव के चलते संन्यासी नहीं बना। जब मैं चार साल का था, तब से ही मैं संन्यासी बनना चाहता था। मुझमें कभी भगोड़ी मानसिकता नहीं थी।' तब वे हरियाणा के जींद जिला चले गए, जहां वे आचार्य धर्मवीर के गुरुकुल कल्व में शामिल हो गए और हरियाणा के ग्रामवासियों की योग की शिक्षा देने लगे।
किंतु रामदेव की खोज अभी पूरी नहीं हुई थी। पूर्ववर्ती आध्यात्मिक गुरुओं की भांति रामदेव के भटकते मन ने उन्हें हिमालय जाने को प्रेरित किया, जहां उन्होंने अनेक आश्रमों का भ्रमण किया - वहां के मनीषियों द्वारा अभ्यास किए जा रहे योग व ध्यानमग्नता की अपनी समझदारी और दक्षता बढ़ाते हुए। गंगोत्री ग्लेशियर के निकट गुफा में गहन ध्यानमग्नता में तल्लीन रहने के दारान उन्हें इच्छित प्रबुद्धता का बोध हुआ, जिसने उन्हें उनके जीवन के वास्तविक मिशन, जिसको समग्र रूप से जानने का प्रयास वे वर्षो से कर रहे थे, का ज्ञान दिया। "जब मैं हिमालय में था, गहन चिंतन किया करता था; मेरे अंदर आंतरिक संघर्ष चल रहा था। मैं सोचता था, मैं यहां क्या कर रहा हूं? संन्यासी बंधुत्व-मानवता के कल्याण के लिए है। यदि मेरा जीवन इस स्थान पर समाप्त हो जाता है, तब थोड़ा-बहुत जो ज्ञान मुझमें है, वह मेरे साथ समाप्त हो जाएगा।"
वहीं उनकी मुलाकात अपने भविष्य के सहयोगियों आचार्य बालकृष्ण और आचार्य कर्मवीर के साथ हुई, जो उनके द्वारा शीघ्र ही स्थापित किए जाने वाले मिशन के बहुमूल्य सहयोगी बनने वाले थे। इसी स्थान पर उनकी मुलाकात अपने भविष्य के अन्य सहयोगियों आचार्य मुक्तानंद और आचार्य वीरेंद्र के साथ भी हुई।
सन् 1993 में रामदेव ने हिमालय छोड़ा और हरिद्वार आ गए। सन् 1995 में वे कृपालु बाग आश्रम के अध्यक्ष स्वामी शंकरदेव के शिष्य बन गए। यह आश्रम क्रांतिकारी से आध्यात्मिक गुरु बने स्वामी कृपालु देव द्वारा सन् 1932 में स्थापित किया गया था। मेवाड़, राजस्थान में यति किशोर चंद्र के नाम से जन्में यह संन्यासी सक्रिय स्वंतत्रता सेनानी थे। वे बंगाल के क्रांतिकारियों द्वारा स्थापित विप्लव दल के सदस्य थे और उत्तरी भारत में 'युगांतर' एवं लोकांतर नामक समाचार-पत्रों के वितरण की जिम्मेदारी उन पर थी। ये समाचार-पत्र स्वंतत्रता सेनानियों के मुखपत्र थे और ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित थे। ब्रिटिश सरकार ने इन समाचार-पत्रों के प्रकाशन स्थल का पता लगाने और इनके वितरण को रोकने का भरपूर प्रयास किया, पर विफल रही।
किशोर चंद्र ने प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी बोस (जो लॉर्ड हार्डिग बम प्रकरण में शामिल थे और जिनके ऊपर ब्रिटिश सरकार ने 3 लाख रुपए का इनाम रखा था) सहित अनेक स्वतंत्रता सेनानियों को शरण दी थी। हरिद्वार में प्रथम सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित करने का श्रेय किशोर चंद्र को जाता है। इस पुस्तकालय में लगभग 3,500 पुस्तकों का संग्रह था। उन्होंने राष्ट्रवादी ढांचे के अधीन शिक्षा प्रदान करने के लिए क्षेत्र में अनेक विद्यालयों की स्थापना की और नवयुवकों के बीच स्वतंत्रता संग्राम की ठोस जमीन तैयार की।
इस अवधि के दौरान किशोर चंद्र ने संन्यास ले लिया और स्वामी कृपालु देव के नाम से पुकारे जाने लगे। वे बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी चितरंजन दास, गणेश शंकर विद्यार्थी, वी.जे. पटेल, हकीम अजमल खां, जवाहरलाल नेहरू, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पुरुषोत्तम दास टंडन और गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के संस्थापक स्वामी श्रद्धानंद के करीबी सहयोगी थे। वे सब प्राय: उनके आश्रम में आया करते थे।
स्वामी कृपालु देव 'विश्व ज्ञान' नामक पत्रिका प्रकाशित करते थे, जो स्वतंत्रता आंदोलन का मुखपत्र था। उन्होंने 'वेद गीतासार', 'जीवन मुद्रा गीता' और 'आत्मब्रह्म बोधमाला' सहित अनेक पुस्तकों की रचना की। सौ वर्ष की आयु में सन् 1968 में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद स्वामी शंकरदेव उनके उत्तराधिकारी बने।
सन् 1995 में अपने गुरु से दीक्षा प्राप्त करने के बाद बाबा रामदेव ने लोगों के बीच योग और इसके चिकित्सकीय लाभों के प्रचार-प्रसार का कार्य छोटे स्तर पर आरंभ किया। योग और आयुर्वेद के महत्व पर तैयार परचों का वितरण करते हुए वे हरिद्वार की सड़कों पर घूमा करते थे। शीघ्र ही उन्होंने मानव शरीर पर योग का प्रयोग शुरू किया और पांच वर्षो से भी अधिक समय में विस्तारपूर्वक किए गए शोध के उपरांत उन्होंने अपना योग स्वास्थ्य सिद्धांत स्थापित किया, जो अब विश्व-प्रसिद्ध है। सन् 2002 में अपनी पहली सार्वजनिक सभा में उन्होंने इस सिद्धांत को प्रकट किया। सन् 2003 में योग उपचार कैंपों को शुरू किया गया और अगले साल प्रथम आवासीय कैंप लगाया गया।
ऐसा लगता है कि व्यापक तैयारी के बाद रामदेव ने अपने आगमन की घोषणा की। ऐसा बताया जाता है कि उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी और सुयोग्य एलोपैथिक डॉक्टरों से अनेक रोगों के उपचार तरीकों और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा ग्रहण की। जैसा उनके बाद के संभाषण में दिखता है, कि चिकित्सीय शब्दावली और रोगों की प्रकृति एवं ड्रग-थैरेपी पर उनकी पकड़ और ज्ञान विशाल है।