गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं और गुरु ही देवादिदेव महादेव हैं। गुरु साक्षात् परब्रह्म परमात्मा के समान हैं। अतः गुरु को मेरा सर्वदा शत्-शत् नमन है।
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। गुरुपूर्णिमा अर्थात् गुरु के प्रति आभार एवं कृतज्ञता प्रकट करने का दिन। अतः सभी शिष्य इस तिथि पर अपने-अपने गुरुओं का पूजन करते हैं। भारतीय संस्कृति की प्रतीक यह गुरुपूजा समस्त भारत में ही नहीं अपितु संसार भर में प्रसिद्ध है, जिसे व्यासपूजा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन सम्पूर्ण भारतवर्ष में गुरु पूजन एवं वन्दन होता है। शिष्यगण दूर-दूर से गुरु के धाम आकर श्रद्धापूर्वक भेंट अर्थात् गुरुदक्षिणा अर्पित करते हैं तथा आर्शीवाद प्राप्त करते हैं। सम्पूर्ण ब्रजक्षेत्र विशेषतः मथुरा, वृंदावन तथा गोवर्धन में यह गुरुपूजा बड़ी ही श्रद्धा, भक्ति, हर्ष एवं उल्हास के साथ मनायी जाती है। यह पूर्णिमा सबसे बड़ी पूर्णिमा मानी जाती है, क्यूंकि तीनों लोकों में ज्ञान को श्रेष्ठ तथा ज्ञानप्रदाता सद्गुरु को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इस पूर्णिमा पर सद्-आचार, सद्-विचार तथा सत्यव्रत का पालन करने से वर्ष की समस्त पूर्णिमाओं का फल प्राप्त होता है।
गुरु परब्रह्म परमात्मा से मिलन कराकर शिष्य को भव-बन्धन से मुक्ति प्रदान करते हैं। इसी कारण संसार में गुरु का विशेष स्थान है। गुरु के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती तथा ज्ञान के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतः शिष्य को भवसागर से पार जाने के लिए गुरु रूपी नाविक तथा ज्ञान रूपी नौका की अत्यंत आवश्यकता होती है। गुरुचरणरज की विशेष महिमा है। शिष्य गुरु की चरणधूलि को हृदय एवं मस्तक से स्पर्श कराके ही सद्गति के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। माना जाता है कि जो व्यक्ति जिस स्वभाव एवं गुणों से परिपूर्ण होता है, उसकी चरणऊर्जा में उन्हीं स्वभाव एवं गुणों के तत्व विद्यमान रहते हैं, जोकि चरणों से लिपटी रज अर्थात् धूल में भी अपना प्रभाव छोड़ते हैं। अतः सद्गुरु की चरणरज गुरु के सम्पूर्ण जीवन की ज्ञान-साधना के तत्त्वों से ओत-प्रोत होती है, जिसे मस्तक पर धारण करने का स्वर्णिम अवसर विरले ही शिष्यों को प्राप्त होता है। गुरुचरणधूलि से मन और मस्तिष्क दोनों के पट खुल जाते हैं। जहॉ मन के पट खुलने से आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार होता है, वहीं मस्तिष्क के द्वार खुलने से प्राणि इस ब्रह्माण्ड एवं जीवनचक्र के गूढ़ रहस्य को समझ पाता है। इन दोनों ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् ही मनुष्य को सद्गति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गुरु शब्द का अर्थ अत्यंत गूढ़, व्यापक तथा व्याख्या से परे है। जो अपने शिष्यों के कानों में ज्ञान रूपी अमृत घोलता है, वह गुरु है। जो अपने सदुपदेशों के द्वारा अपने शिष्य को अज्ञान रूपी अन्धकार से निकालकर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाता है, वह गुरु है। जो अपने शिष्य के प्रति कृपा, दया, क्षमा तथा प्रेम का भाव रखता है, वह गुरु है। जो धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने की कला प्रदान करता है, वह गुरु है। जो वेद एवं पुराणों के रहस्य को समझाता है, वह गुरु है।
गुरु का आदर-सत्कार किसी व्यक्ति विशेष का आदर-सत्कार नहीं अपितु, उस व्यक्ति अथवा गुरु के शरीर में स्थित परमज्ञानी, पवित्र एवं दिव्यआत्मा का आदर-सत्कार है अर्थात् गुरु के ज्ञान एवं गुणों का पूजन है। गुरुपूर्णिमा को व्यासपूर्णिमा के नाम से भी पुकारा जाता है। ऋषि वसिष्ठ के पौत्र तथा ऋषि पाराशर के पुत्र महर्षि व्यास का जन्म भी आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ था। अतः गुरुओं के गुरु महर्षि व्यास की जन्मतिथि होने के कारण ही इस पूर्णिमा का नाम व्यासपूर्णिमा हुआ। व्यास जी ने वेदों का विस्तार किया, इसी कारण इन्हें वेदव्यास के नाम से पुकारा जाने लगा। बाल्यावस्था में ही पवित्र तीर्थ बद्रीकाश्रम में एकमात्र बेर पर जीवन-यापन करके तपस्या करने के कारण इनका नाम बादरायण हुआ। काले अर्थात् श्याम वर्ण का होने तथा द्वीप में उत्पन्न होने के फलस्वरूप इनका एक नाम कृष्णद्वैपायन भी है।