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आपत्तियों के विनाशक ब्रह्म-शिव स्वरूप बटुक भैरवनाथ
पं.हनुमान मिश्रा
पौराणिक मान्यता के अनुसार भैरव को स्वयं ब्रह्मदेव का प्रतीक माना गया है। जबकि रूद्राष्टाध्यायी और भैरव तंत्र के अनुसार भैरव जी को भगवान शिव का ही अंशावतार माना गया है। ऐसे में एक शंका का मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है। वास्तव में भैरव जी शिव के ही अवतार है। शास्त्रों में इनको शिवांश मानते हुए कहा गया है कि भैरव पूर्ण रूप से देवाधिदेव शंकर ही हैं। लेकिन भगवान शंकर की माया से ग्रस्त होने के फलस्वरूप एक सामन्य व्यक्ति इस तथ्य को नहीं जान पाता। लेकिन भैरव के रूप में शिव के प्राकट्य के पीछे जो कारण है वह ब्रह्मदेव के कार्यों सम्पन्न करना है। वास्तव में इनका अवतरण ब्रम्हा जी की मति फिर जाने की अवस्था में उन्हें धर्म का मर्म समझाने हेतु हुआ है। इसीलिए इन्हें ब्रह्मदेव का प्रतीक माना गया है। इस प्रकार से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हैं तो ये शिव के ही अंश या अवतार लेकिन ब्रह्मदेव के कार्यों में सहयोग करने के लिए इनका अवतरण हुआ है अत: इनकी पूजा आराधना से दोनो ही देवों की कृपा स्वयमेव प्राप्त हो जाती है।

आइए संक्षेप इनके नाम की सार्थकता के बारे में जाना जाय। क्योंकि ये ब्रह्मदेव के प्रतीक माने गए हैं साथ ही ब्रह्माजी के वरदान स्वरूप ये सम्पूर्ण विश्व के भरण-पोषण की सामर्थ्य हैं। अत: इनका नाम भैरव हुआ। भैरव शब्द का विग्रह करके समझा जाय तो "भ" अर्थात विश्व का भरण करने वाला, "र" अर्थात विश्व में रमण करने वाला और "व" अर्थात वमन यानी कि सृष्टि का पालन पोषण करने वाला। इन दायित्वों का निर्वहन करने के कारण इनका नाम भैरव हुआ। अब इनके नाम के पहले जुडने वाले शब्द "बटुक" के बारे में जाना जाय। "बटुक" का अर्थ होता है छोटी उम्र का बालक। अर्थात आठ वर्ष से कम उम्र के बालक को "बटुक" कहा जाता है। वर्णन मिलता है कि महर्षि दधीचि भगवान शिव के परम भक्त थे। उन्होंने अपने पुत्र का नाम शिवदर्शन रखा लेकिन भगवान शिव नें उसका एक नाम और रखा जो था "बटुक"। अर्थात यह नाम भगवान शिव को प्रिय है। इसीलिए बटुक भैरव को भगवान शिव का बालरूप माना जाता है। इनकी वेश-भूषा शिव के समान ही है। इनको श्याम वर्ण माना गया है। इनके भी चार भुजाएं हैं, जिनमें भैरव जी ने त्रिशूल, खड़ग, खप्पर तथा नरमुंड धारण कर रखा है। इनका वाहन श्वान अर्थात कुत्ता है। इनका निवास भी भगवान भूतनाथ की तरह श्मशान ही माना गया है। भैरव भी भूत-प्रेत, योगिनियों के अधिपति हैं। इनके स्वरूप को देखकर सामान्यतय: ऐसा प्रतीत होता है कि इनका जन्म राक्षस अथवा अत्याचारियों को मारने के लिए हुआ होगा। परन्तु जैसा कि पहले ही बताया गया कि वास्तव में इनका अवतरण ब्रह्मदेव के कार्यों में सहयोग करने के लिए हुआ है।

भैरव के कोई लौकिक माता पिता नहीं हैं। अत: इन्हें अवतार ही माना गया है। इन्हें कलियुग में प्रभावी देवी देवताओं में प्रमुखता प्राप्त है। यद्यपि अन्य देवताओं की तरह श्री भैरव के भी अनेक रूप माने गए हैं जिसमें प्रमुख रूप से बटुक भैरव, महाकाल भैरव तथा स्वर्णाकर्षण भैरव प्रमुख हैं। फिर भी सभी भैरवों में बटुक भैरव की उपासना प्रमुख है। बटुक भैरव जी कि विस्तृत कथा स्कंध पुराण में है साथ ही भगवान शिव द्वारा रचित रुद्रमाल्या ग्रन्थ में भी भगवान भैरव नाथ कि कथा का वर्णन मिलता है जिसमें स्वयं भगवान शिव ने कहा है कि जो कोई बटुक भैरव की आराधना सच्चे मन से करता है, उसे मृत्योपरांत कैलाश धाम की प्राप्ति होती है।

भैरवनाथ को आपत्तियों का विनाश करने वाला देवता कहा गया है साथ ही ये एक ऐसे देवता है जिनकी पूजा उपासना से मनोकामना पूर्ति अवश्य होती है। इनकी उपासना से भूत-प्रेत बाधा से त्वरित मुक्ति मिलती है। लोगों की इन पर अपार श्रद्धा है। इनकी लोकप्रियता का अनुमान इस तथ्य से सहज लगाया जा सकता है कि प्राय: हर गांव के पूर्व में स्थित देवी-मंदिर में स्थापित सात पीढियों के पास में आठवीं भैरव-पिंडी अवश्य होती है। नगरों के देवी-मंदिरों में भी भैरव महराज विराजमान रहते हैं। देवी के भक्तों की पूजा उपासना से जब देवी प्रसन्न होती है तब भैरव को आदेश देकर ही देवी मां भक्तों की कार्य सिद्धि और मनोकामना पूर्ण कराती हैं।

इनसे काल भी भयभीत रहता है। इनमें दुष्टों का संहार करने की असीम क्षमता है। शिवजी ने इन्हें काशी के कोतवाल पद पर प्रतिष्ठित किया है। शिवजी का यह कोतवाल ऐसा है जिसके राज्य में मानव जीवन में दुख-दर्द जैसे अपराधी नहीं पनपने पाते। जो व्यक्ति अपनी कुण्डली में स्थित पाप ग्रहों के दुष्प्रभाव से पीडित हों या शनि की साढ़े-साती या ढैय्या से दुखी हों। जिन्हें मंगल, शनि, राहू, केतू आदि ग्रहों से अशुभफल मिल रहे हैं। अथवा कोई ग्रह नीच या शत्रु क्षेत्रीय होकर कष्ट दे रहा है तो भैरव जयंती अथवा किसी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, रविवार या मंगलवार से प्रारम्भ कर बटुक भैरव मूलमंत्र की एक माला का जाप प्रतिदिन रूद्राक्ष की माला से 40 दिनों तक करें। ऐसा करने से आपके जीवन में अशुभता की कमी होगी और शुभ फलों की प्राप्ति अवश्य होगी।


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