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गोलियां-गालियां और अनुराग कश्यप के प्रयोग बनाम गैंग्स ऑफ वासेपुर
22 जून 2012
 
‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ अपने आप में अलग मिजाज की फिल्म है। इस फिल्म का आनंद लेने के लिए पहली शर्त है-संयम। निर्देशक अनुराग कश्यप की प्रयोगधर्मिता फिल्म के पहले दृश्य से आरंभ होती है और टुकड़ों में अलग अलग स्तर पर सामने आती है। अभिनय के स्तर पर फिल्म लाजवाब है, क्योंकि न सिर्फ मनोज बाजपेयी बल्कि तिंग्माशु धूलिया, नवाजुद्धीन सिद्धीकी, पंकज त्रिपाठी, रिचा चड्ढा समेत लगभग सभी कलाकार अपने किरदारों में इस तरह समाए हुए हैं कि उनके वास्तविक नाम गौण हो जाते हैं।

फिल्म का केंद्र वासेपुर नाम का कस्बा है, जो अब धनबाद का हिस्सा हो चुका है। फिल्म का नाम भले गैंग्स ऑफ वासेपुर है, लेकिन फिल्म की कहानी उस तरह के गैंग्स के बारे में नहीं है, जिन्हें रुपहले पर्दे पर देखने का दर्शक आदी रहा है। फिल्म में गैंग्स की कई परतें हैं, जो आपस में गुथी हुई हैं। वासेपुर के मुसलमान बँटे हुए हैं। कुरैशी और पठान। दो यह दो गैंग हैं। फिर पठानों के बीच से निकला सरदार खान और कोयला माफिया से विधायक और मंत्री बने रामधीर सिंह के बीच की जंग भी एक गैंगवार है। गैंग्स ऑफ वासेपुर 1947 से 2004 के बीच बनते बिगड़ते वासेपुर शहर की कहानी है, जहां कोल और स्क्रैप ट्रेड माफिया का जंगल राज है। सरदार खान (मनोज वाजपेयी) की जिंदगी का एक ही मकसद है। अपने सबसे बड़े दुश्मन कोल माफिया से राजनेता बने रामधीर सिंह (तिग्मांशु धुलिया) से अपने पिता की मौत का बदला लेना। सरदार खान की प्रेम कहानी के साथ उसका इंतकाम भी चलता रहता है और कहानी दूसरी पीढ़ी पर आ जाती है।

फिल्म को कुछ हद तक डॉक्यू ड्रामा शैली में बनाया गया है। पीयूष मिश्रा के रुप में एक सूत्रधार भी है, जो मनोज बाजपेयी यानी सरदार खान का चाचा है। गोलियां और गालियां फिल्म की एक यूएसपी है, जो फिल्म की कहानी की माँग है, ठूंसी नहीं गई। फिल्म में कई कुंटल गोलियां चली हैं और थोक के भाव में गालियां हैं।

फिल्म के कई संवाद चीरने वाले हैं।।

हजरात हजरात हजरात। वासेपुर से एक लड़की को अगवा कर लिया गया है। वो लड़की अगर तीन घंटे में नहीं मिली तो इतने बम फेंकेंगे कि शहर धुआं धुआं हो जाएगा। हजरात हजरात हजरात।
या
तुमको ठरक मिटाना है .. जहां जाना है जाओ … बस घर मत लेकर आना … नहीं तो एहिएं चीर देंगे … खाना खाओ … ताकत आएगा … बाहर जाकर बेइज्जती मत कराना
या
अपने औजार को भी काट देना दो हिस्सों में।

सैयद जि़शान कादरी, अखिलेश जायसवाल, सचिन लाडिया के साथ अनुराग कश्यप ने पटकथा का जिम्मा संभाला है। फिल्म के कुछ सीन बेमिसाल हैं  लेकिन दो पीढ़ियों की कहानी के संवाद के जरिये तात्कालिक परिस्थितियों को निर्मित करने की कोशिश में फिल्म बोझिल सी हो गई है। स्नेहा खानवलकर का संगीत कर्णप्रिय है। कुछ गाने तो पहले ही हिट हो चुके हैं।

फिल्म लंबी है तो कहानी उलझी हुई है। किरदारों की भरमार है, जो दर्शकों को परेशान करती है। फिल्म में हिंसा है, गालियां हैं, कुछ सीन में हास्य भी है, लेकिन फिल्म मसाला नहीं है। यह बात आसानी से कही जा सकती है कि फिल्म का सीमित दर्शकवर्ग है। फिल्म को अच्छी पब्लिसिटी मिली है तो संभवत: वह लक्ष्य दर्शकवर्ग फिल्म को देखे। 


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