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फिल्म रिव्यू: इस्सक
27 जुलाई 2013
शेक्सपियर की कालजयी कृति ‘रोमियो एंड जूलियट’ को दुनिया भर के कई फिल्मकार अपने-अपने तरीके से बना-दिखा चुके हैं। हिन्दी फिल्मों में भी इस नाटक के ढेरों रूपांतरण बने हैं, लेकिन अगर यह कहा जाए कि यह फिल्म इस दुखांत नाटक के सबसे ज्यादा करीब है तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। कोई छह बरस पहले अपनी पहली फिल्म ‘दिल दोस्ती एट्सेट्रा’ के बाद डायरेक्टर मनीष तिवारी ने इस फिल्म में सचमुच काफी लंबी छलांग लगाई है। शेक्सपियर की रचनाओं ‘मैक्बेथ’ और ‘ओथेलो’ को देसी माहौल में ढाल कर ‘मकबूल’ और ‘ओंकारा’ जैसी फिल्में बना चुके विशाल भारद्वाज के करीब आ खड़े हुए हैं मनीष।

‘रोमियो एंड जूलियट’ के दो प्रतिद्वंद्वी परिवार कैपुलेट्स और मोंटेग्यूस यहां कश्यप और मिश्र हैं और वेरोना शहर की जगह है बनारस। इन दो रेत माफियाओं की लड़ाई में एक मंत्री भी शामिल है, पुलिस वाले भी और लाल सलाम का नारा लगाते कुछ नक्सली भी। इन सबकी लहराती बंदूकों के साये तले मिश्र के बेटे राहुल और कश्यप की बेटी बच्ची के बीच प्यार का अंकुर फूटता है। लेकिन इनसे जुड़े ढेरों ऐसे किरदार हैं, जिनके अपने-अपने हित हैं।

जिस खूबसूरती से लेखकों ने इस कहानी में बनारस के रेत माफिया, राजनीति, पुलिस और नक्सलियों को जोड़ा है, वह सचमुच तारीफ के काबिल है। अपने मिजाज से कभी ‘इशकजादे’ तो कभी ‘ओंकारा’ के करीब जाती यह फिल्म दरअसल इंसानी फितरतों के अंदर झांकती है। प्यार, वासना, ईष्र्या, दोस्ती, विश्वासघात, वर्चस्व कायम करने की इच्छा जैसी तमाम इंसानी खूबियों-खामियों को यह विस्तार से दिखाती है। लेकिन यह फिल्म कमियों से अछूती भी नहीं है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है इसकी लंबाई। कई जगह फिल्म बेवजह खिंचती-सी लगती है। आखिरी के आध-पौन घंटे में आप सीट पर पहलू बदलते हुए यह सोचते हैं कि बाहर कब निकला जाए।

लेकिन इस फिल्म में ऐसा बहुत कुछ है, जिसके लिए इसे देखा जाना चाहिए। पहले तो यही कि ‘रोमियो एंड जूलियट’ का ऐसा देसी और ईमानदार संस्करण अभी तक अपने यहां नहीं आया है। फिर जिस तरह से बनारस शहर, वहां के माहौल, वहां की जुबान और वहां के विभिन्न किरदारों को इसमें बुना गया है, उससे यह फिल्म अपना एक ऐसा वजूद कायम कर लेती है, जिसके असर से बच पाना नामुमकिन है। प्रतीक बब्बर के काम में इतनी सफाई और गहराई पहली बार नजर आई है।

कह सकते हैं कि बतौर ‘अभिनेता’ यह उनकी पहली फिल्म है। नई अदाकारा अमायरा दस्तूर न सिर्फ बहुत प्यारी और मासूम लगी हैं, बल्कि अपने किरदार के साथ पूरा इंसाफ करती नजर आई हैं। प्रतीक और अमायरा के बीच की कैमिस्ट्री भी बढ़िया है। रवि किशन हर बार की तरह प्रभावी रहे। चौंकाती तो हैं राजेश्वरी सचदेव। बच्ची की सौतेली मां के रोल में उन्हें काफी वैरायटी दिखाने को मिली। बच्ची की शादी के मौके पर उसे हल्दी लगाने के सीन में तो वह बिना कुछ कहे कमाल की एक्टिंग करती हैं। लंबे अर्से बाद दिखीं नीना गुप्ता भी खूब जंचीं।

बाबा के रोल में मकरंद देशपांडे असरदार रहे। गाने फिल्म के मिजाज को सूट करते हैं और जब आते हैं तो कहानी को और गाढ़ा ही करते हैं। बनारस के मूड को विशाल सिन्हा ने बड़ी खूबसूरती से कैमरे में कैद किया है, जो काबिले तारीफ है।

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