खबरों की दुनिया में रहते-रहते, खबरों को ओढ़ते-बिछाते अचानक एक दिन अहसास हुआ कि खबरें हमसे कबकी छिटककर दूर जा गिरी हैं. हम जिन्हें चिपकाये घूम रहे हैं वो तो मार्केट की डिमांड है और हम सप्लाई करने वाले कारिंदे. हाथ पैर मारे, आंखें मलकर देखा तो पाया कि भले ही खबरें हमसे छिटककर दूर हो गयी हों लेकिन रेंग वे आसपास ही रही हैं. जैसे ही उनकी ओर हाथ बढ़ाया पीछे से आवाज आई, नहीं ये हमारी खबर नहीं है. हमारी माने जिन जगहों पर हम काम करते हैं.
इन दिनों हर मीडिया हाउस एक ब्रांड है. हर ब्रांड की अपनी कुछ खासियत होती ही है. जिससे उसकी पहचान होती है. उसी ब्रांड वैल्यू के आधार पर वो खबरों की इंटेंसिटी और यूटिलिटी को तय करता है. इस बीच दो शब्दों ने मीडिया इंडस्ट्री में कदम रखा. ये शब्द थे, टीजी और टीआरपी. ये शब्द पहले भी रहे होंगे लेकिन पिछले कुछ सालों से इनका काला जादू इस कदर छाया हुआ है कि दस बरस पहले जो सोच समझकर, पढ-लिखकर मीडिया में आये थे वो सब धराशाई हो गया है. खबरें अब अपना अस्तित्व हमारे एकॉर्डिंग गढऩे की फिराक में रहती हैं. उन्हें भी मालूम है कि गरीबों की बात, मजदूरों की बात, किसानों की बात तभी होती है जब इन बातों से राहुल गांधी, आमिर खान, प्रीति जिंटा जुड़ते हैं. किसानों की बात खबर तब बनती है जब वे सुसाइड करते हैं.
दस मजदूरों के मरने की खबर पर मलाइका अरोड़ा के नये डांस आइटम की बिक्री ज्यादा है तो बड़ी खबर वही है. खबर वो, जो ज्यादा दर्शक बटोरे यानी मोर टीआरपी. ज्यादा पाठक घसीटे यानी मोर रीडरशिप.
जब हमने खबरों को देखना, परखना, सूंघना सीखा था, तब हमें यह तो बताया ही नहीं गया था कि अगर खबर में टीआरपी की स्मेल कम लगे तो खबरों को सूंघकर छोड़ देना ही ठीक है. अगर वो हमारे टीजी को इंटरटेन न करे, उसमें इंट्रेस्ट न जगाये तो उसका हमारे लिए कोई लाभ नहीं. हमें ऐसी खबरों की ओर देखना भी नहीं चाहिए. अब ये जरूरी सवाल हो चले हैं. इनके बगैर पत्रकारिता का कोई कोर्स कंप्लीट नहीं होने वाला.
हमें अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है तो उन्हें बताना होगा कि मार्केट में खड़े रहने के लिए टीजी और टीआरपी की गांठ बांध लो. इसी में तुम्हारी और समाज की तरक्की छुपी है. चमकते भारत की तस्वीर इन्हीं शब्दों के इर्द-गिर्द कहीं है. 24 घंटे चलने वाले न्यूज चैनल्स के पास आधे घंटे के आथेंटिक प्रोग्राम के लिए स्लॉट नहीं होता. उस पर लगातार बाजार का दबाव काम करता है. प्रोग्राम को कट करने और ऐसे प्रोग्राम बनाने वाले पत्रकार को काटकर फेंक देने की कोशिशें सिर उठाती हैं. 24 पन्नों के अखबारों में सिंगल कॉलम को तरसती एक गरीब की भूख आखिर पन्नों से नीचे लुढ़क ही जाती है. राखी सावंत के फूहड़ झगड़ों के लिए घंटों का स्लॉट है. सारा देश उजबक की तरह मुंह खोले देख रहा है कि अब राखी ने क्या किया. कैटरीना और ऐश में कैसे होगी कान फेस्टिवल में टक्कर. सोनम कपूर ने कैसे ऐश को एक ही बार में पटकनी दे दी. राहुल गांधी का भट्टा परसौल का ड्रामा भी ग्लैमर लिये है सो चले जा रहा है. भई जो खबर बना रहा है, या बन रहा है उसका फोटोजेनिक होना भी तो जरूरी है.
कनिमोझी की तिहाड़ यात्रा में खबर भी है और ग्लैमर भी. जनता जानना चाहती है कि कनिमोझी ने अपनी रात कैसे बिताई जेल में. क्या खाया, कितना खाया. किससे बात की, क्या बात की. देखने वालों की अपनी थाली में रोटी नहीं है, कोई बात नहीं लेकिन उन्हें ये जरूर पता है कि धोनी की शादी में कितनी तरह के पकवान बने और रसोइये कहां-कहां से गये. ये है नये दौर की खबरों का संसार.
अब जब बच्चों को पढ़ाने क्लास में जाती हूं तो कई बार खुद को ब्लैंक पाती हूं. क्या कहूं, खबर क्या होती है. एक बार एक बच्चे ने अपनी डायरी में लिखा था कि जो मैनेजमेंट को पसंद आ जाये वो खबर बाकी सब बेखबर. उसने यह क्या सोचकर लिखा था नहीं पता लेकिन पढ़कर स्तब्ध थी. ये नये युग की परिभाषायें हैं. पिछला सारा कहा सुना, पढ़ा लिखा बेकार हो चुका है. हम आउटडेटेड हो चुके हैं क्योंकि हमारे भीतर अब भी पत्रकारिता के कीटाणु कुलबुलाते हैं. खबरों के दिखने और फिर उनके मर जाने पर दु:ख अब भी होता है. पेज थ्री के लिए पूरा पेज सहेजकर रखने और एक मजलूम की खबर को सिंगल कॉलम भी न मिलने पर अब भी तकलीफ होती है और इसका अर्थ साफ है कि हम नकारा हो चुके हैं. फिर भी जबरन हर दिन एक-एक खबर के लिए लडऩे झगडऩे वालों को देखना, उन्हें दुखी होते देखना, चाय के ठीहों पर बड़बड़ाते हुए अपनी असल खबरों की चिंदिया उड़ाते देखना न जाने क्यों अच्छा लगता है. लगता है सब कुछ खत्म भी नहीं हुआ है अभी भी. हालांकि टीजी और टीआरपी के हौव्वे ने बुरी तरह घेर रखा है इसमें कोई शक नहीं.
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