सिनेमेटोग्राफी के क्षेत्र में जाना माना नाम है ज्ञान सहाय। पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के इस धुरंधर ने फिल्मों में भी हाथ आजमाया और टेलीविजन में भी। देख भाई देख से लेकर अंताक्षरी और सारेगामापा जैसे कार्यक्रमों में सिनेमेटोग्राफी कर चुके ज्ञान सहाय निर्देशक और निर्माता भी हैं। सिनेमेटोग्राफी की विधा में संभावनाओं, चुनौतियों और उनके भावी कार्यक्रमों पर उनसे खास बात की पीयूष पांडे ने।
सवाल- शुरुआत निजी जिंदगी का सबसे पहले। कहां के रहने वाले हैं आप और फिल्मी दुनिया में कैसे आ गए।
जवाब- मैं पटना का रहने वाला हूं। परिवार में फिल्म से जुड़ा कोई था नहीं। छोटा बेटा होने की वजह से मनमर्जी की थोड़ी छूट मिली थी। उस वक्त फिल्मों के बारे में कोई सोचता नहीं था। मैं बात कर रहा हूं 1972 की। पिता जी इंजीनियर थे और उनका जॉब ऐसा था कि कई शहरों में रहना हुआ। लेकिन, कॉलेज की शिक्षा पटना से ही पूरी की।
सवाल-सिनेमेटोग्राफी में रुझान कैसे हुआ। आपने जिस दौर में कोर्स किया, उस वक्त तो फिल्म की ग्रामर समझने वाले लोग ज्यादा नहीं थे। और जहां तक मैंने पढ़ा है कि कोर्स के आवेदन के वक्त आपके पास कुछ अनुभव भी नहीं था।
जवाब- मुझे सिर्फ फोटो खींचने का शौक था। लेकिन, एक ललक थी सीखने की। पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में मैंने आवेदन किया। इंटरव्यू पैनल को यही बात अच्छी लगी कि मुझे सीखने की ललक है। मुझे याद है कि जिस वक्त मैंने आवेदन किया था, उसी वक्त तैयब बादशाह ने भी। उन्हें सिनेमेटोग्राफी की काफी जानकारी थी। हमारे एक टीचर थे गोपाल सर। वह कहा करते थे कि छात्र में सिर्फ सीखने की ललक होनी चाहिए। बाकी वो जितना रॉ होगा, उतना अच्छा है। उसे सिखाया जा सकता है। लेकिन,सीखे सिखाए को बेहतर बनाने के चक्कर में कई बार कंफ्यूजन पैदा होता है।
सवाल-सिनेमेटोग्राफी है क्या। सरल शब्दों में बताएं।
जवाब- 24फ्रेम की फोटोग्राफी होती है। एक सेंकेंड में 24 फ्रेम चलते हैं तो तस्वीर दृश्य के रुप में दिखायी देती है। प्रोजेक्टर एक सेंकेंड में 24 फ्रेम ही दिखाता है। सिनेमेटोग्राफी में कैमरा मूवमेंट का ध्यान देना होता है और साथ में किरदारों के मूवमेंट का। जिस बंदे को स्टिल फोटोग्राफी की समझ है,वो थोड़ी मेहनत से फिल्मों की सिनेमेटोग्राफी समझ सकता है। हां, इस दौरान लाइटिंग को भी समझना होता है।
सवाल-तो कोर्स के बाद कितना आसान या मुश्किल रहा फिल्मी दुनिया का सफर? क्योंकि ऐसा माना जाता है कि पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के छात्र को जॉब के लिए ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ता।
जवाब- हमारा बैच अच्छा निकला था। विनोद प्रधान, जहांगीर चौधरी, मनमोहन जैसे दिग्गज मेरे बैच में ही थे। मुंबई में पुणे से आए लड़कों का काबिल माना जाता था, इसमें संदेह नहीं। लेकिन काम मिलना आसान नहीं था। शुरुआत में मैं दूरदर्शन गया। वहां कैजुअल रख लिया गया। लेकिन पहले ही दिन एक बिल्डिंग गिरी तो उसे कवर करने जाना पड़ा। मुझे वे दृश्य देखकर बहुत खराब लगा। बेचैनी हुई। तो नौकरी छोड़कर वापस पुणे चला गया। वैसे भी बरसात के दिनों में मुंबई में कुछ ज्यादा काम होता नहीं था। पुणे में उन्हीं दिनों एफटीआईआई का ट्रेनिंग इस्टीट्यूट बना था। वहां नौकरी मिल गई। 900 रुपए वेतन था। अचानक मैं रईस हो गया। क्योंकि पहले घर से 200 रुपए आते थे, और उन्हीं में पूरा महीना गुजारते थे। हां, इस दौरान भी मैं हर शनिवार-रविवार को मुंबई आता और लोगों से मुलाकात करता। ऐसे ही मेरी मुलाकात गोविंद निहलाणी से हुई। उन्हें एक सहायक की जरुरत थी। मेरा इम्तिहान लिया और रख लिया। उनके साथ काम करने में अलग आनंद आने लगा। वह दूसरा इंस्टीट्यूट बन गया मेरे लिए। वह खुद वीके मूर्ति के सहायक रहे हैं तो उनका काम करने का स्टाइल अलग था। चार पांच साल उनके साथ ट्रेनिंग हुई। श्याम बेनेगल की ‘भूमिका’ सहायक के रुप में पहली फिल्म थी मेरी। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी खास थी। कुछ अंश कलर था, कुछ सेमी कलर। गोविंद निहलाणी के साथ सिनेमेटोग्राफी के वह हिस्से समझा, जो इंस्टीट्यूट में नहीं समझ पाया था। फिर रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ में भी बतौर सहायक काम किया। विदेशियों के काम करने के तरीके और व्यवसायिकता को करीब से देखा।
सवाल-तो फिर अपना काम...
जवाब-पांच साल करीब गोविंद निहलाणी के साथ काम किया। इसी बीच टेलीविजन कमर्शियल हो रहा था। इसकी तकनीक नई थी। मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे टेलीविजन में खूब काम मिला और मुझे वह तकनीक कुछ ज्यादा ही समझ आई। टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण में क्रांति हुई तो मल्टीपल कैमरा सैटअप लगने लगे। मुझे यह तकनीक ज्यादा समझ आई। धीरे धीरे इसमें विशेषज्ञता हो गई। आलम यह कि जो लोग मल्टीपल कैमरा शूट के बारे में सोचते तो वे मेरे पास ही आते।
सवाल-आपको टेलीविजन कुछ ज्यादा ही रास आया। फिल्मों में ज्यादा काम नहीं किया आपने। क्यों।
जवाब-देखिए तो बाते रहीं। एक तो टेलीविजन में फिल्मों के मुकाबले नियमित पैसा मिलता है। करियर के शुरुआती दौर में मुझे मालूम था कि शोषण होगा, पर स्वतंत्र सिनेमेटोग्राफर के रुप में कुछ ज्यादा ही लोगों ने ठगा। मतलब कई बार पैसे पूरे नहीं मिले। दूसरी वजह यह कि जिन दिनों टेलीविजन पर मैंने ध्यान देना शुरु किया तो लगभग रोज मेरा नाम टेलीविजन स्क्रीन पर आने लगा। यानी एक्सपोजर ज्यादा मिला। देख भाई देख जैसे चर्चित सीरियल को मैंने ही किया। उस दौरान जया बच्चन जी ने एक बार मजाक में कहा भी कि मैं उकता गई हूं आपका नाम रोज टेलीविजन पर देखकर। टेलीविजन के लिए बहुत काम मिला तो उसी में व्यस्त हो गया।
सवाल-टेलीविजन के रिएलिटी शो आज जिस रुप में पर्दे पर दिखायी देते हैं, उन्हें उस रुप में दिखाए जाने में आपकी भूमिका मानी जाती है। किस तरह के प्रयोग किए आपने। और आजकल क्या नयी तकनीक आ रही है, उस पर ध्यान दे रहे हैं।
जवाब-अंताक्षरी में अनु कपूर को दिक्कत थी कि कैमरे के चलते उनके मूवमेंट सीमित हो जाते हैं। तो मैंने उन्हें आजादी दी कि आप चाहे जो कीजिए,कैमरा आपको फॉलो करेगा। फिर,सारेगामापा किया। मेरी आवाज सुनो किया। इन सबी रिएलिटी शो में हम प्रजेन्टेशन दिखाते थे। लेकिन, अचानक अमेरिकन आइडल की तर्ज पर भारत में इंडियन आइडल शुरु हुआ तो उसमें प्रिप्रेशन भी दिखानी शुरु हुई। यह रिएलिटी हो गई। कैमरे पर उनके परिवार को, उनकी तैयारी को दिखाने लगे। चरित्र का बायोग्राफिकल मूवमेंट भी जगह पाने लगा। इस तरह के शो ज्यादा रियल लगने लगे। हालांकि,हमनें इन सभी शो से पहले सही मायने में एक रियलिटी शो किया था। वह था जी सिनेस्टार की खोज। बहुत बड़ा रिएलिटी शो था। बहुत भव्य। लेकिन, उसे उतनी लोकप्रियता नहीं मिली। इंडियन आइडल लोकप्रिय हुआ तो जीटीवी को चिंता हुई। उन्होंने सारेगामापा का पैटर्न बदलने के बारे में फैसला किया। उस वक्त मैं और शान इसके पक्ष में नहीं थे। लेकिन, थिंक टैंक ने कहा कि भव्यता होनी चाहिए। 2007 में गजेन्द्र सिंह हटे तो मैं डायरेक्ट करने लगा। उस दौरान एक सीजन बहुत लोकप्रिय हुई। जिस सीजन में ऑनिक, राजा और पूनम यादव शामिल हुई थीं।
सवाल- एक हिन्दी फिल्म भी तो निर्देशित की है आपने-सर आंखों पर। लेकिन, उसके बाद फिर फिल्म निर्देशन के बारे में नहीं सोचा।
जवाब-गोविंद निहलाणी के साथ काम किया है। तो वह कहा करते थे कि सिनेमेटोग्राफर का मतलब सिर्फ कैमरा चलाना और लाइट की व्यवस्था करना भर नहीं है। अपना दिमाग चलाना भी है। तो मुझे भी यह कीड़ा लग गया था। मैंने अपने निर्देशकों को अपनी सीमा से बाहर जाकर मदद करता था। यह बात कलाकारों और निर्माताओं को दिखती थी। इसी बीच विवेक वासवानी संपर्क में आए। उनसे अच्छे रिश्ते बन गए। दिलीप जोशी भी साथ में थे। तो हमनें सर आंखों पर बनायी। ऋषिकेश मुखर्जी से प्रेरित होकर। इस फिल्म में आनंद फिल्म का प्रभाव था। लेकिन, फिल्म की मार्केटिंग अच्छी नहीं हुई तो फिल्म नहीं चली। उधर,टेलीविजन के लिए इतना काम था कि फिल्म के बारे में ज्यादा सोचने का वक्त नहीं मिला।
सवाल-एक भोजपुरी फिल्म 'बैरी पिया' भी निर्देशित की है आपने। तो भोजपुरी में दोबारा क्यों हाथ नहीं आजमाया।
जवाब-हां, वह फिल्म भी बनायी थी। सरस्वती चंद का रीमेक। भोजपुरी फिल्मों का जो अंदाज होता है, यह फिल्म बिलकुल अलग थी। पाखी हेगड़े ने पहली बार भोजपुरी में काम किया था। आज वो स्टार है वहां की। भोजपुरी दर्शकों का मिजाज बिलकुल अलग है। तो यह फिल्म वहां नहीं चली। बाद में मेरे भाईसाहब ने कहा कि जाओ और सिनेमाघर में भोजपुरी फिल्में देखों कि कैसे दर्शक उन्हें देखते हैं और उनका मिजाज क्या है। अब मैं फिर एक भोजपुरी फिल्म बना रहा हूं, जो उन्हीं के मिजाज के मुताबिक होगी। हालांकि,फूहड़पन नहीं होगा लेकिन उम्मीद है कि दर्शकों को पसंद आएगी।
सवाल-सिनेमेटोग्राफी में नयी तकनीक आ रही है। कैनन फाइव डी और रेडवन जैसे कैमरों ने फिल्म बनाना सस्ता कर दिया है। फिल्मों में सिनेमेटोग्राफी के संदर्भ में नए प्रयोगों पर आपकी क्या राय है।
जवाब-निश्चित तौर पर इन कैमरों पर अब फिल्में बन रही हैं, और चल रही हैं। हालांकि, मैंने अभी तक कैनन 5डी या 7डी या रेडवन का इस्तेमाल नहीं किया है। बड़े फिल्न निर्देशक अभी भी 35एमएम पर फिल्म बनाना चाहते हैं। वह उसी में कंफर्टेबल हैं। लेकिन, छोटे निर्माता-निर्देशकों के लिए यह बड़ी सौगात है। मैंने भी हाल में कैनन5डी की तकनीक को समझा है। भोजपुरी फिल्म इसी कैमरे पर शूट कर सकता हूं। अभी समझ रहा हूं। पर इसमें संदेह नहीं कि फिल्म बनाना इनसे बहुत सस्ता हो जाएगा। अगर छोटी फिल्मों को प्रदर्शन के लिए मंच भी मिल जाए तो फिर पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा।
सवाल-तो भोजपुरी फिल्म ही पाइप लाइन में है या कुछ और भी चीजें हैं।
जवाब-एक सीरियल ‘नन्हीं सी कली...’ दूरदर्शन पर चल रहा है, जिसका मैं निर्माता हूं। डेढ़ साल तक यह दूरदर्शन पर नंबर एक रहा। एक दो हफ्ते छोड़कर। अब एक और सीरियल प्लान कर रहा हूं।
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