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आलोचना से रचना निखरती है: डा. निर्मला जैन

dr nirmala jain interview
आलोचना की डगर बहुत मुश्किल होती है. उस डगर पर अगर कोई स्त्री हो तो मुश्किलें अपना आकार और बढ़ाने लगती हैं. इन मुश्किलों के बीच से रास्ता बनाते हुए डा. निर्मला जैन ने हिंदी आलोचना को मजबूती दी है. वे रचनाओं को पूरी ईमानदारी और इन्वॉल्वमेंट के साथ पढ़ती हैं और उस पर स्पष्ट राय देती हैं. उनका काम ऐसा है कि उनके हिस्से में ज्यादातर नाराजगी ही आती है खासकर तब, जब वे किसी खेमेबाजी में बिलीव न करती हों और अपने ऊपर किसी का दबाव न आने देती हों. स्पष्ट, निर्भीक और बेहद जानकार कई देशों की यात्रा कर चुकी यह महिला आलोचक सबकी फेवरेट हों न हों सबके सम्मान पर उनका पूरा अख्तियार है. निजी जिंदगी में बेहद शांत, सुरुचिपूर्ण ये महिला आलोचक रचनाओं की हर छोटी-बड़ी कमजोरी और खूबी पर बारीक न$जर रखती हैं और तीखी टिप्पणी भी करती हैं. आइये जानते हैं उनके इस डिफरेंट वर्क के डिफरेंट शेड्स-


स्त्री-
स्त्री भी एक इंसान है. लेकिन अफसोस है कि उसे उसके इंसानी हक से ही वंचित रहना पड़ा. उसे इंसान के रूप में देखा जाना, समझा जाना ही स्त्री के प्रति जस्टिस होगा.

स्त्री विमर्श-
स्त्री के हितों को ध्यान में रखकर, स्त्री के साथ जेंडर के आधार पर होने वाले भेदभाव को खत्म करने के इरादे से किया गया विमर्श ही स्त्री विमर्श है. यह साहित्य में भी हो सकता है और साहित्य से इतर भी. बल्कि मैं तो कहूंगी कि साहित्य से इतर का जो स्त्री विमर्श है, जो आम स्त्री के जीवन में घट रहा है वह ज्यादा पॉवरफुल है. भारत में स्त्री विमर्श की काफी कमी है. यहां अब तक ओरिजनल विचार ही नहीं पनप पाये हैं. इसके लिए बार-बार पश्चिम की ओर देखना पड़ता है. इस नाते काफी उलझा हुआ स्त्री विमर्श सामने आता है. हमारे देश में स्त्री विमर्श सतियों का रेशमी उद्यम बन गया है. इससे स्त्री विमर्श की एक भ्रामक छवि उभर कर आती है जिससे काफी नुकसान हो रहा है.

मीडिया-
मीडिया चाहे वी प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक इसकी भूमिका इन दिनों हर मामले में काफी इम्पॉर्टेंट है. यह काफी इफेक्टिव मीडियम है. इसका क्षेत्र व्यापक है, इसकी पकड़ हर घर में है इसलिए इसके $जरिये सोसायटी को अवेयर करने का काम बहुत अच्छी तरह से किया जा सकता है, किया जा रहा है. लेकिन मीडिया एक जगह गड़बड़ी करता है वह खबरों को बेचने के लिहाज से सेंसेशनल बना देता है. यह कभी-कभी नुकसानदेह भी होता है.

ग्लोबल थॉट-
हर देश में स्त्रियां सजग हो रही हैं. अपनी खामोशी को तोड़ रही हैं. इस लिहाज से स्त्रियों से जुड़े मुद्दों को एक वैश्विक धरातल पर रखा जा सकता है. इस बारे में ग्लोबल थॉट अभी बनने की प्रॉसेस में है.

इनसाइडर राइटिंग, आउटसाइडर राइटिंग-
यह कोई जरूरी नहीं है कि जिसने दर्द को जिया है, वही उसे ठीक तरह से लिख सकता है. संवेदना के स्तर पर कई बार उस व्यक्ति की तकलीफ को सामने वाला भी फील कर सकता है. भुक्तभोगी कभी-कभी अपनी तकलीफ को बयान करने के चक्कर में ओवर इन्वाल्व हो जाता है और बैलेंस नहीं कर पाता. इससे एकतरफा पक्ष ही सामने आ पाता है. ऐसे में एक आउटसाइडर उस तकलीफ को ज्यादा बेहतर ढंग से प्रेजेन्ट कर सकता है. इसलिए इनसाइडर और आउटसाइडर का मुद्दा बेकार है सारा मामला संवेदना, सरोकार और उसके बीच के संतुलन का है. प्रेमचंद की कहानी सद्गति इसका अच्छा उदाहरण है.

आलोचना में महिलाएं-
आलोचना के क्षेत्र में महिलाएं बहुत कम हैं. बल्कि नहीं के ही बराबर हैं. यह काफी मुश्किल काम है साथ ही इसकी पहली मांग है निर्विकार और साहसी होना. जो महिलाएं इस क्षेत्र में आईं उन पर इतने दबाव पड़े कि उनकी बातों के अर्थ कमजोर पडऩे लगे. अभी महिलाओं को इस ओर भी सचेत होने की जरूरत है कि उनके कांधों पर रखकर बंदूक न चलायी जाये, वो बंदूक तो हरगिज नहीं जिसका निशाना भी वे खुद ही हों. अपने अस्तित्व और अपनी क्षमताओं के प्रति सचेत होना बेहद जरूरी है उनके लिए. आलोचना एक महत्वपूर्ण कार्य है, इससे रचना में निखार आता है इसलिए इस काम को करते  हुए निष्पक्ष रहना बेहद जरूरी है.

नई नारी के लिए-
नई नारी खुद समझदार है, ऊर्जावान है. उससे इतना ही कहना है कि जो सफर उसने शुरू  किया है वो आसान नहीं है बहुत मुश्किल है और इन मुश्किलों को आसान बनाना ही उसका हुनर है. अपनी क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल उसे करना ही चाहिए.
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