ज्वालाजी बस स्टैन्ड़ से दाहिनी ओर एक रास्ता जाता है। इस रास्ते के दोनों ओर की दुकानों पर लहराते चमकीले गोटे के लाल-लाल दुपट्टे भक्तों को संदेश देते है कि अब उनकी मंजिल करीब ही है। इन दुपट्टों को स्थानीय भाषा में ‘सालू’ कहा जाता है। भक्तगण इन दुपट्टों को मंदिर में माता को भेंट स्वरूप अर्पित करते हैं। ज्वालाजी मंदिर में मुख्य द्वार तक संगमरमर की सफेद सीढि़याँ बनी हुई हैं। इसके बाद ज्वालाजी का दरवाजा आता है। ज्वालाजी के द्वार से अंदर जाने पर एक अहाता आता है, जिसके बीच में एक आकर्षक मंदिर बना हुआ हैं। मंदिर के अहाते में छोटी नदी के पुल से होकर जाना पड़ता है। इसी मंदिर के मध्य में ज्वालाओं का कुण्ड है। इस कुण्ड़ के भीतर पृथ्वी से मशाल के समान ज्योति निकलती रहती है। शिवपुराण एवं देवीपुराण में इसी को देवी के ज्वाला रूप की संज्ञा दी गयी है। इस मंदिर के आस-पास अन्य देवी-देवताओं के सुन्दर भवन स्थित हैं। इस मंदिर की वास्तुशैली एक विशेष प्रकार की है, जिसके अन्तर्गत विशाल शिलाओं को तराश कर मंदिर निर्माण में प्रयोग किया गया है। मंदिर की गूढ़ वास्तुशैली का पता इस बात से भी चलता है कि सन् 1905 के जिस भयानक भूकम्प ने समूचे कांगड़ा शहर को दहला दिया था, बह इस मंदिर को तनिक भी क्षति न पहुँचा सका।
इस प्राचीन शक्तिपीठ के बारे में धारणा है कि यहाँ भगवती सती की जिह्वा (जीभ) गिरी थी। इसी कारण इसे प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। यहाँ की शक्ति ‘सिद्धिदा’ तथा भैरव उन्मत्त हैं। कालीधर पर्वत की चट्टान से नौ अलग-अलग स्थानों पर पवित्र ज्योतियों ने ज्वाला रूप में स्वतः ही जन्म लिया है। देवी के भक्तों का विश्वास है कि नवदुर्गा इन्हीं नौ ज्योतियों के रूप में यहाँ सदा विराजमान रहती है। ये ज्वालाऐं देवी चण्डिका की शक्ति द्वारा बिना किसी ईधन के पर्वत की भूमि से अनन्तकाल से स्वतः ही प्रज्वलित एवं प्रकाशमान है। भूमि से ज्वाला के रूप में ऊपर आती ये वायु पश्चिम की ओर से दायीं ओर चलतीं हैं। इनके प्रकट होने का सार आजतक कोई भी नहीं जान सका है। इस मंदिर के निर्माण के संबन्ध में एक कथा प्रचलित है- सतयुग में एक ग्वाले को गौएँ चराते हुए सर्वप्रथम पहाड़ी पर निरन्तर प्रज्वलित ज्योति के दर्शन हुए, जिसकी सूचना उसने तत्कालीन राजा भूमिचन्द्र को दी। राजा ने अपने पुरोहित के परामर्श अनुसार यहाँ भगवती सती का मंदिर बनवाया तथा शाकद्वीप से भोजक जाति के दो ब्राह्मणों पं श्रीधर एवं पं कमलापति को यहाँ लाकर पूजा-सेवा का अधिकार सौंपा। कालांतर में पाँचों पांडवों ने अपने अज्ञातवास के समय यहाँ की यात्रा की थी तथा मंदिर का जीर्णोद्धार भी किया। जिसका उल्लेख यहाँ के कांगड़ाघाटी के लोकगीतों में भी मिलता है।
यथा:- पंजा पंजा पंडवां मैया तेरा भवन बनाया, अर्जुन चैंर झुलाया।
मंदिर की बढ़ती महत्ता के फलस्वरूप समय-समय पर मंदिर का विस्तार एवं निर्माण होता गया। यहाँ मुख्य मंदिर की दीवार के गोखले (आले) से तीन, कोने में से एक, दायीं ओर की दीवार से एक, मध्य कुंड़ की भित्तियों से चार कुल मिलाकर नौ प्रकाश निकलते हैं। इन ज्योतियों का प्रकाश कभी कम तो कभी अधिक रहता है। नव दुर्गा ही चैदहों भुवन की रचना करने वाली है, जिसके सेवक सत्, रज, तम तीन गुण हैं। ऐसी धारणा है कि मुख्य मंदिर के द्वार के समक्ष जो तीन ज्योतियाँ प्रकाशमान है, वे महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती प्रधान ज्वालारूप हैं तथा अन्य नवदुर्गा स्वरूपिणी ज्वालाएँ हैं। द्वार के सामने चाँदी के आले में जो ज्योति सदा प्रज्वलित रहती है, वही प्रथम एवं मुख्य ज्योति महाकाली का रूप मानी जाती है। यही ज्योति ज्वालाजी के नाम से प्रसिद्ध है, जो भुक्ति एवं मुक्ति प्रदान करतीं है। द्वितीय ज्योति द्वार के सामने बने कुंड़ की मुख्य ज्योति महालक्ष्मी की है, जो सम्पूर्ण वैभव प्रदान करती है। तृतीय ज्योति इसी कुंड़ की एक अन्य ज्योति महासरस्वती की है, जो विद्या एवं बुद्धिदात्री है। चौथी ज्योति सम्पूर्ण बाधाओं का नाश करने वाली चण्डिका देवी की है। पाँचवीं ज्योति धन-धान्य प्रदान करने वाली माता अन्नपूर्णां की है। छठी ज्योति संतानसुख प्रदान करने वाली अम्बिका माता की है। सातवीं ज्योति आयु एवं आरोग्य प्रदान करने वाली अंजना माता की है। आठवीं एवं नवीं ज्योति क्रमशः श्रीहिंगलाज भवानी तथा श्रीविन्ध्यवासिनी की है। इसके अतिरिक्त भी अन्य कई ज्योतियाँ मंदिर की भित्तियों से जगह-जगह निकलती रहती हैं। यहाँ ज्योतियों की संख्या अधिक से अधिक तेरह तथा कम से कम तीन रहती है। इनमें से कई ज्योतियाँ स्वतः बुझती एवं जलती रहती हैं। इन ज्योतियों को भक्तगण जब दूध पिलाते है, तो उसमें बत्ती तैरने लगती है तथा कुछ देर तक नाचती है। यह अत्यन्त मनोहारी दृश्य होता है।
इन ज्योतियों की शक्ति के संबन्ध में संदेह करके बादशाह अकबर ने इन्हें बुझाने हेतु सैनिकों को आदेश दिया। लोहे के मोटे-मोटे तवे इन ज्योतियों के ऊपर रखवा दिये किन्तु दिव्य एवं पवित्र ज्योतियाँ तवे को फाड़कर ऊपर निकल आयीं। आज भी मंदिर में रखे उक्त तवे भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। तदोपरान्त बादशाह ने पानी की एक नहर का रुख इन ज्योतियों की ओर करवाया किन्तु ज्योतियों का जलना निरंतर जारी रहा। अन्तः बादशाह अकबर के हृदय में ज्योतियों के प्रति श्रद्धा का उदय हुआ तथा वह सावा मन सोने का छत्र अपने कंधे पर उठाये नंगे पाँव दिल्ली से ज्वालामुखी पहुँचा किन्तु जैसे ही बादशाह ज्योतियों से समक्ष नतमस्तक हो छत्र चढ़ाने को हुआ वह छत्र किसी अनजान धातु में बदल गया। इस अनजान धातु की पहचान आज भी रहस्य बनी हुई है। उक्त चमत्कार से द्रवीभूत हो अकबर माता से क्षमा याचना कर वापस दिल्ली लौट गया। ज्वालाजी की परिक्रमा से लगभग दस सीढि़याँ ऊपर चढ़कर दाहिनी ओर गुरु गोरखनाथ की तपस्थली है, जिसे गोरखनाथ की डिभी (डिब्बी) कहते है। इसकी दीवार से दो प्रकाशपुंज निकलते रहते है। यहाँ एक छोटे से कुंड़ में जल निरन्तर खौलता रहता है, जो दिखने में गर्म प्रतीत होता है, किन्तु हाथ के स्पर्श करने पर जल शीतल लगता है। कुंड़ के ऊपर धूप की बत्ती दिखाने से जल के ऊपर बड़ी ज्योति प्रकट होती है। काली मंदिर के सामने तीन सौ फुट का एक जलकुंड़ है। यात्रीगण यहाँ से जल लेकर स्नान आदि करते हैं। मंदिर में स्थित संगीतमय फब्बारा भी दर्शनीय है। मण्डप-शैली में निर्मित यह मंदिर श्री और ऐश्वर्य सम्पन्न माना जाता है, जहाँ भक्तों को देवी की आलौकिक शक्ति के साक्षात दर्शन होते है। शरदनवरात्री में यहाँ बड़ा मेला लगता है।
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