एस्ट्रो स्कूल - पुनीत पांडे
कालनिर्णय
ज्योतिष में किसी भी घटना का कालनिर्णय मुख्यत: दशा और गोचर के आधार पर किया जाता है। दशा और गोचर में सामान्यत: दशा को ज्यादा महत्व दिया जाता है। वैसे तो दशाएं भी कई होती हैं परन्तु हम सबसे प्रचलित विंशोत्तरी दशा की चर्चा करेंगे और जानेंगे कि विंशोत्तरी दशा का प्रयोग घटना के काल निर्णय में कैसे किया जाए।
विंशोत्तरी दशा नक्षत्र पर आधारित है। जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी नक्षत्र के स्वामी से दशा प्रारम्भ होती है। दशाक्रम सदैव इस प्रकार रहता है -
सूर्य, चन्द्र, मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध, केतु, शुक्र।
जैसा कि विदित है कि दशा क्रम ग्रहों के सामान्य क्रम से अलग है और नक्षत्रो पर आधारित है, अत: इसे याद कर लेना चाहिए। माना कि जन्म के समय चन्द्र शतभिषा नक्षत्र में था। पिछली बार हमने जाना था कि शतभिषा नक्षत्र का स्वामी राहु है अत: दशाक्रम राहु से प्रारम्भ होकर इस प्रकार होगा -
राहु, गुरु, शनि, बुध, केतु, शुक्र, सूर्य, चन्द्र, मंगल
कुल दशा अवधि 120 वर्ष की होती है। हर ग्रह की उपरोक्त दशा को महादशा भी कहते हैं और ग्रह की महादशा में फिर से नव ग्रह की अन्तर्दशा होती हैं। इसी प्रकार हर अन्तर्दशा में फिर से नव ग्रह की प्रत्यन्तर्दशा होती हैं और प्रत्यन्तर्दशा के अन्दर सूक्ष्म दशाएं होती हैं।
जिस प्रकार ग्रहों का दशा क्रम निश्चित है उसी प्रकार हर ग्रह की दशा की अवधि भी निश्चित है जो कि इस प्रकार है
ग्रह दशा की अवधि (वर्षों में)
सूर्य 6
चन्द्र 10
मंगल 7
राहु 18
गुरु 16
शनि 19
बुध 17
केतु 7
शुक्र 20
कुल 120
आगे हम यह बताएंगे कि दशा की गणना कैसे की जाती है। हालांकि, ज्यादातर समय दशा की गणना की आवश्यकता नहीं होती है इसलिए अगर गणना समझ में न आए तो भी चिन्ता की जरूरत नहीं है। आज कल जन्म पत्रिकाएं कम्प्यूटर से बनती हैं और उसमें विंशोत्तरी दशा गणना दी ही होती है। सभी पंचागों में भी गणना के लिए विंशोत्तरी दशा की तालिकांए दी हुई होती हैं।