26 फरवरी 2013
मुंबई। वर्ष की इससे बेहतर शुरूआत नहीं हो सकती। वर्ष की शुरूआत में ही वर्ष की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक, भावनाओं को उद्वेलित करने वाली और वर्तमान से कहीं आगे भविष्य की फिल्मों को रास्ता दिखाने वाली फिल्म साबित हो सकती है 'काई-पो-चे'।
गुजरात में पतंगें उड़ाते वक्त एकदूसरे को चुनौती देने के अंदाज में पुकारा जाने वाले शब्द 'काई-पो-चे' के शीर्षक वाली यह फिल्म हमारे जेहन में गहरे धंस जाने वाली फिल्म साबित होने वाली है। लेकिन वास्तव में फिल्म में पतंग उड़ाने का सिर्फ एक दृश्य है।
काई-पो-चे गगन में विचरती मुक्त आत्माओं की कहानी है जिसमें चरित्रों को इतनी खूबसूरती से पिरोया गया है कि आप उन्हें हमेशा अपने साथ रखना चाहेंगे। यह मुक्ताकाशी स्वतंत्र आत्माएं गुनगुनी धूप की तरह अपने भीतर महत्वाकांक्षाओं, अभिलाषाओं तथा उम्मीदों को पालती हैं, लड़खड़ाती हैं तथा फिर अपने पैरों पर खड़ी हो जाती हैं।
शांत एवं तनावरहित गुजरात की पृष्ठभूमि पर बनी काई-पो-चे तीन अलग-अलग स्वभाव के युवाओं की दोस्ती तथा उनके गुजरात में अपनी पहचान की तलाश करने की कहानी है। यह फिल्म है तो चेतन भगत के उपन्यास पर आधारित लेकिन इसकी दृश्य रचना तथा कहन शैली इसे कहीं ऊपर ले जाती है।
फिल्म के तीन प्रमुख किरदार, जिसमें बाद में एक लड़की के रूप में चौथी किरदार भी जुड़ती है, जीवन के ऐसे मोड़ पर पहुंचते हैं जहां अस्तित्व की लड़ाई बेहद धीरे से उन्हें अपनी जद में लेती है। लेकिन मानव निर्मित एवं प्राकृतिक आपदाओं के संयोग से यह संकट भारतीय मध्यवर्गीय परिवार के अस्तित्व को रसातल में धकेल देने वाला साबित होता है।
काई-पो-चे तीन दोस्तों, अधीर और बेपरवाह क्रिकेट खिलाड़ी ईशान (सुशांत सिंह राजपूत)उसके होशियार लेकिन शर्मीले दोस्त गोविंद (राजकुमार यादव) और उनके कुछ-कुछ सशंकित दोस्त ओमी (अमित साध) की कहानी है।
ओमी के उदार हृदय पिता एक मंदिर में पुजारी हैं जो धार्मिक भावना से नहीं बल्कि आर्थिक मजबूरी से इस पेशे में आए हैं।
इन चरित्रों के माध्यम से फिल्म के पटकथा लेखकों, अभिषेक कपूर, चेतन भगत, पुबलई चौधरी तथा सुप्रतीक सेन ने भारत की मुख्यधारा सिनेमा को भारत के सामाजिक राजनीतिक ताने-बाने से परिचित कराया है।
काई-पो-चे उत्तर जागरण काल के भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे ज्यादा उद्वेलित करने वाली फिल्मों में से एक है। इसके कई कारण हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह है इसका इतिहास और सिनेमा के बीच आवागमन।
इस तरह की फिल्में बनाने का जोखिम कम ही निर्माता-निर्देशक लेते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि दर्शक ऐसी फिल्में पचा ही नहीं पाएंगे। इसलिए वे हल्की-फुल्की असानी से पच जाने वाली जंक-फूड श्रेणी की फिल्में बनाते हैं।
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