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शिव और पार्वती का निवासस्‍थल : कैलाश मानसरोवर

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अनिरुद्ध शर्मा

हमारे पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ‘कैलाश’ को भगवान शंकर और मॉ पार्वती का निवासस्‍थल माना जाता है। भगवान शिव अपने समस्त गणों के साथ इसी आलौकिक स्थान पर रहकर तीनों लोक तथा चौदहों भुवन पर अपनी कृपादृष्टि रखते है। शिवपुराण के अनुसार कुबेर ने इसी स्थान पर कठिन तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने कैलाश को अपना निवास स्थान तथा कुबेर को सखा बनाने का वरदान दिया था। शास्त्रों के अनुसार इसी स्थान को पृथ्वी का स्वर्ग एवं कुबेर की अलकापुरी की संज्ञा भी दी गयी है। कैलाश पर्वत बर्फ से ढ़के शिवलिंग के रूप में आठ पहाड़ों से घिरा ऐसा प्रतीत होता है मानो अष्टदल कमल पुष्प हो। कैलाश पर्वत की समुद्रतल से ऊँचाई 22027 फीट तथा बाहरी परिक्रमापथ 62 किमी0 है।

‘मानसरोवर’, जिसे वेद एवं पुराणों में छीरसागर भी कहा गया है, सृष्टिपालक श्रीविष्णु का निवास स्थान है। इसी छीरसागर में भगवान विष्णु अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी के साथ शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं। कैलाश मानसरोवर सभी धर्मावलम्बियों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। कैलाश-मानसरोवर का वर्णन रामायण, महाभारत, पुराणों, जैन एवं बौद्ध साहित्यों, रघुवंशम् एवं कुमारसंभवम् आदि ग्रंथों में भी यदा-कदा मिलता है। कैलाश के वास्तविक स्वरूप को तर्क से नहीं अपितु श्रद्धा, विश्वास एवं अटूट भक्ति द्वारा समझा जा सकता है। कैलाश-मानसरोवर दिल्ली से लगभग 865 किमी0 दूर हिमालय पर्वत के मध्य तिब्बत में स्थित है, जोकि अब चीन गणराज्य का हिस्सा है। तीर्थ यात्रियों के लिए ये विदेश की यात्रा भी है। कैलाश-मानसरोवर में किसी भी देवी-देवता की कोई मूर्ति, मंदिर या पूजा-स्थल नहीं है। भक्तगण ड्रोल्मा पास तथा मानसरोवर तट पर खुले आसमान के नीचे ही शिव एवं शक्ति का पूजन-भजन करते हैं। यहाँ कहीं-कहीं बौद्धमठ भी दिखाई देते हैं, जिनमें बौद्ध भिक्षु साधनारत रहते हैं।

हिमालय पर्वत के तीर्थों में सबसे कठिन तथा भगवान शिव के पवित्र धाम कैलाश-मानसरोवर की यात्रा प्रतिवर्ष भारत एवं चीन गणराज्य के विदेश मंत्रालयों द्वारा जून के प्रथम सप्ताह से सितम्बर माह के अन्तिम सप्ताह तक कुमायूं मण्डल विकास निगम एवं भारत तिब्बत सीमा पुलिस के सहयोग से आयोजित की जाती है। 1962 में भारत-चीन युद्ध के पश्चात् यह यात्रा लगभग 18 वर्षों तक बंद रही तथा 1981 से इस यात्रा की पुनः शुरुआत हुई। यात्रा के लिए फरवरी-मार्च माह में विदेश मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा दूरदर्शन, रेडियो तथा प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्रों में विज्ञापन के माध्यम से आवेदन आमन्त्रित किये जाते हैं। आवेदन के साथ स्वास्थ्य प्रमाणपत्र तथा पासपोर्ट की छायाप्रति संलग्न करना आवश्यक होता है। हर वर्ष 16 जत्थे (दल) तथा प्रत्येक जत्थे (दल) में 35 यात्रियों को यात्रा पर जाने की अनुमति होती है। यात्रा पर जाने के लिए अधिक आवेदन आने के कारण विदेश मंत्रालय द्वारा ड्रा (लाटरी) सिस्टम अपनाया जाता है। विदेश मंत्रालय कुल प्राप्त आवेदनों में से ड्रा (लाटरी) के आधार पर यात्रियों का चयन करता है।

यात्रा के लिए लाटरी उन्हीं भाग्यशाली व्यक्तियों की निकलती है, जिन पर भोलेनाथ की कृपा होती है। चयनित व्यक्तियों को उनकी यात्रा तिथि से एक माह पूर्व सूचित कर दिया जाता है, ताकि वे पूर्ण तैयारी के साथ समय पर दिल्ली पहुँच सकें। इस यात्रा के लिए लगभग एक लाख रुपये का खर्चा आता है। यात्रा के दौरान प्रत्येक यात्रीी को सूखे मेवे, कंबल, ऊनी कपड़े, ऊनी टोपी, दस्ताने, छाता, बरसाती, स्नो शूज, टार्च, वैसलीन, धूप का चश्मा, जरूरी दवाऐं तथा खाने-पीने का आवश्यक सामान आदि अपने साथ अवश्य रखने चाहिए। यात्रा का शुभारंभ भारत की राजधानी नई दिल्ली से होता है। श्रद्धालु यात्रियों को विदेश मंत्रालय में जाना होता है, जहाँ इन्हें यात्रा सम्बन्धी आवश्यक निर्देश दिये जाते है। इसके उपरान्त यात्रियों को स्वास्थ्य जाँच के लिए भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के आधार चिकित्सालय में जाना होता है। वहीं उन्हें यात्रा की दुर्गमता के बारे में जानकारी दी जाती है। स्वास्थ्य जाँच में सफल यात्रियों को ही अन्तिम रूप से यात्रा पर जाने की अनुमति प्राप्त होती है।

यात्रा के प्रथम चरण हेतु यात्रीगण नई दिल्ली के अशोक यात्री निवास पर इकट्ठा होते है। यहाँ सरकार की ओर से यात्रियों को रुकने की निःशुल्क व्यवस्था होती है, किन्तु यात्रा के दौरान भारत में पड़ने वाले सभी कैंपों में कुमायूं मडंल विकास निगम द्वारा यात्रियों के लिए ठहरने, खाने-पीने, संचार तथा चिकित्सा की व्यवस्था सःशुल्क की जाती है। सभी प्रक्रियाऐं पूर्ण होने के पश्चात् यात्रीगण अशोक यात्री निवास से बस में सवार होकर शिव-दर्शन का सपना सँजोये अपने परिजनों से विदा लेते है। दिल्ली से आठ घन्टे की यात्रा के बाद यात्रीगण काठगोदाम पहुँचते हैं, जोकि दिल्ली से 285 किमी0 दूर तथा समुद्रतल से 550 मी0 की ऊँचाई पर स्थित है। यात्रियों का पहला पड़ाव काठगोदाम होता है। यहाँ यात्री रात्री विश्राम करते है। सुबह नाश्ते के पश्चात् कुमायूं मंडल विकास निगम के अधिकारीगण यात्रियों का स्वागत करके आगे की ओर विदा करते हैं। सुन्दर एवं सुहावने प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन करते हुए यात्रीगण नैनीताल, भवानी, अल्मोड़ा, बागेश्वर, चाकोरी, डीडीहट होते हुए धारचूला पहुँते हैं। यात्रा मार्ग में कभी-कभी आकाश में इन्द्रधनुष बना देख तथा कहीं-कहीं पहाड़ों से नीचे बादल उड़ते देख मन मंत्रामुग्ध हो जाता है।

धारचूला में रात्रि विश्राम के पश्चात् यात्रीगण सुबह पूजा-पाठ करते है। आगे की यात्रा आरम्भ करने से पहले यहाँ यात्रियों की पुनः चिकित्सा जाँच होती है। स्वास्थ्य जाँच एवं नाश्ते के उपरान्त यात्रियों का सामान तौला जाता है। 25 किलो से ज्यादा भार होने पर कुमायूं मडंल विकास निगम के अधिकारीगण अतिरिक्त शुल्क लेकर घोड़े-खच्चर आदि की व्यवस्था कराते हैं। जय शिव शम्भु के उद्घोष के साथ यात्रीगण बस द्वारा ऊबड़-खाबड़ रास्ते से मंगती की ओर प्रस्थान करते हैं, जोकि धारचूला से लगभग 45 किमी0 की दूरी पर स्थित है। यात्रा मार्ग में एक तरफ नेपाल दूसरी तरफ भारत तथा बीच में कालीनदी बहती है। यहाँ अक्सर भू-स्खलन होता रहता है। यहाँ पहुँचने पर भोलेभाले ग्रामीणों द्वारा यात्रियों का स्वागत-सत्कार किया जाता है। मंगती से ही पैदल यात्रा आरम्भ होती है। यात्रीगण उत्साहपूर्वक मन में शिव का ध्यान धरे, हाथों में छड़ी लिए एक-एक पग आगे बढ़ाते है।

यात्रीगण मंगती से गाला, लखनपुर, अम्बरैलाफाल (छातानुमा झरना), बुंदी, छियालेख, गव्र्यांग, गुंजी, कालापानी, नबीदांग होते हुए लिपूलेक दर्रे तक हिमालय की 69 किमी0 की दूरी तथा 18500 फीट की ऊँचाई को करीब 6 दिनों में तय करते हैं। यात्रा मार्ग में कई खतरनाक, टेढ़े-मेढ़े, फिसलन भरे पड़ाव आते हैं। बुंदी में बिंदाकोटि मंदिर एक दर्शनीय स्थल है। यहीं से मार्ग में 4444 सीढि़याँ नीचे की ओर ऊतरना होता है। लखनपुर से कालीनदी रौद्ररूप धारण कर लेती है। छियालेख में हल्की बूँदा-बाँदी तथा आकाश में छाये बादलों की छटा अत्यन्त मनोहारी प्रतीत होती है। यहाँ आई0 टी0 बी0 पी0 के जवान चाय-पानी का वितरण करते है। जमीन में धँसा गव्र्यांग गाँव देखकर मन को अत्यन्त आश्चर्य होता है। बुंदी से 15 किमी दूर तथा समुद्रतल से 3500 मी0 की ऊँचाई पर स्थित गुंजी नामक स्थान पर पहुँच कर ‘आदिकैलाश’ नामक पर्वत के दर्शन होते हैं। बर्फ से ढ़के पहाड़ पर सूर्य की किरण पड़ते ही ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रकृति ने सोना पिघलाकर पर्वत पर गिरा दिया हो। यहीं पर विश्व की सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित स्टेट बैंक की शाखा है। गुंजी में यात्रियों का पुनः स्वास्थ्य जाँच की जाती है, जिसमें सफल यात्री ही आगे की यात्रा कर सकते है। गुंजी से ही सुरक्षा रेखा आरम्भ होती है।

यात्रीगण आई0 टी0 बी0 पी0 के जवानों, घुड़सवारों, चिकित्सकों तथा वायरलैस कर्मचारियों की निगरानी में आगे बढ़ते हैं। गुंजी से 10 की दूरी पर कालापानी नामक स्थान कालीनदी का उद्गम स्थल है। यात्री को यहाँ आक्सीजन की कमी महसूस होती है। यहाँ शिव एवं काली के दर्शनीय लघु-मंदिर है, जहाँ यात्रीगण पूजा-पाठ करते हैं। मंदिर के सामने व्यास गुफा तथा पीछे शिव पर्वत स्थित है। माना जाता है कि महर्षि व्यास ने महाभारत की रचना इसी गुफा में की थी।

कालापानी से 9 किमी0 दूर नबीदांग भारतीय सीमा का अन्तिम पड़ाव है। यहाँ पूर्व दिशा में एक पर्वत पर ‘ऊँ’ के आकार में बर्फ जमती है, ऐसा लगता है मानो कैलाशपति ने स्वयं अपने हाथों से ‘ऊँ’ लिख दिया हो। इसी कारण इस पर्वत को ऊँकार पर्वत कहते है। आगे का यात्रा मार्ग लिपूलेक दर्रा से होकर गुजरता है, जोकि भारत-चीन की सीमा पर स्थित है। यहाँ से यात्रा रात्रि में सैनिकों के मार्गदर्शन में 18 किमी0 बर्फ पर चलकर तय करनी पड़ती है। इस दुर्गम बर्फीले दर्रे को पार करके यात्री चीन में पहुँचते है, जहाँ उन्हें चीनी सैनिकों की सुरक्षा व मार्गदर्शन में दे दिया जाता है। इन सैनिकों को हिन्दीभाषा का अच्छा ज्ञान होता है तथा वे भारतीय यात्रियों के साथ जल्द ही घुलमिल जाते हैं।

लिपूलेक से 35 किमी0 नीचे ताकलाकोट में यात्रीगण गैस्ट हाउस में ठहरते है, जहाँ भारतीय तथा चीनी व्यंजनों का नाश्ता करते है। यहाँ भारतीय मुद्रा तथा डालरों को चीनी मुद्रा ‘युआन’ में बदला जाता है, क्योंकि तिब्बत में युआन मुद्रा का ही प्रचलन है। यहाँ दो दिन रुक कर आवश्यक जाँच-पड़ताल करवानी होती है। यात्रीगण बस द्वारा आगे की यात्रा शुरु करके तथा गुर्लामान्धाता पर्वत की घाटियों से होते हुए 84 किमी0 परिधि वाले तथा 150 फीट गहरे राक्षसताल पहुँचते हैं। यहाँ राक्षसराज रावण ने तपस्या की थी। इस स्थान को ‘रावणहृद’ भी कहते है। इस ताल का पानी शापित माना गया है, इसी कारण इसमें स्नान एवं आचमन इत्यादि निषेध है। यहीं से कैलाश पर्वत के प्रथम दर्शन होते है।

यात्रीगण राक्षसताल से बस द्वारा जैदी (सेती) पहुँचते है जहाँ पवित्र मानसरोवर के दर्शन होते हैं। मानसरोवर समुद्रतल से 17000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह विश्व की सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित 120 किमी0 की परिधि वाली तथा 300 फीट गहरी मीठे पानी की झील है। इस सरोवर की उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि भागीरथ की तपस्या से प्रसन्न हो गंगा भगवान शंकर की जटाओं से निकल धरती पर यहीं उतरीं थी तथा उनके जल के वेग से जो झील बनी कालांतर में उसी का नाम मानसरोवर हुआ। यात्रीगण झील में स्नान करते है तथा इसी के किनारे मिट्टी का शिवलिंग बना पूजा-हवन इत्यादि करते हैं। मानसरोवर के आसपास का प्रत्येक पाषाण पवित्र माना गया है।

भक्तजन शिवलिंग रूपी इन पत्थरों तथा मानसरोवर के जल को ही प्रसाद रूप में साथ लाते हैं। माना जाता है कि इस झील की एक परिक्रमा से एक जन्म का तथा दस परिक्रमा से हजार जन्मों के पापों का नाश होता है। इसकी 108 परिक्रमा करने से प्राणी भवबंधन से मुक्त हो ईश्वर में समाहित हो जाता है। मानसरोवर 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। माना जाता है कि यहाँ सती की दाहिनी हथेली गिरी थी। मानसरोवर के सौन्दर्य से सम्मोहित हो यात्रीगण आत्मिक बल एवं शांति का अनुभव करते हैं। यहाँ शरीर एवं चहरे को कपड़ों से ढ़ककर रखना पड़ता है अन्यथा तेज बर्फीली हवाओं से नाक, होंठ या चेहरा फठने से खून तक रिसने लगता है। मानसरोवर-परिक्रमा हेतु किनारे-किनारे चलते हुए तथा कैलाश पर्वत के दर्शन करते हुए यात्री बस द्वारा हौरेर होते हुए कुबू पहुँचते हैं। कुबू से ही

कैलाश पर्वत तथा मानसरोवर एक साथ दिखाई देते है। मानसरोवर के स्वच्छ एवं नीले जल में सूर्य की किरणें पड़ने ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आकाश में सैकड़ों तारे झिलमिला रहे हों। सरोवर में तैरती श्वेत बत्तखों के स्वर से ¬कार जैसी ध्वनि महसूस होती है। कुबू में रात्री विश्राम बाद यात्रीगण पुनः जैदी वापस पहुँचते हैं, जहाँ मानसरोवर-परिक्रमा पूर्ण होती है। जैदी से यात्रीगण तारचेन की ओर प्रस्थान करते हैं। तारचेन मानसरोवर से 45 किमी0 दूर कैलाश परिक्रमा का आधार शिविर है। यहीं से कैलाश परिक्रमा आरम्भ होती है। कैलाश परिक्रमा मार्ग 15500 फीट से 19500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। तारचेन से यात्री यमद्वार पहुँचते हैं। इसे ‘शिव-त-साल’ तथा ‘मृत्यु का पठार’ भी कहा जाता है। यहाँ सुरक्षित पहुँचना पुनर्जन्म समझा जाता है, अतः इसी कारण कुछ यात्री यहाँ अपने कपड़े, जूते आदि प्रतीक स्वरूप छोड़ जाते है। यहाँ से निकलने के बाद मृत्यु का भय कम हो जाता है। यमद्वार से सामान ले जाने के लिए याक का प्रयोग किया जाता है। यही स्थान ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम स्थल है।

घोड़े एवं याक पर चढ़कर ब्रह्मपुत्र नदी को पार करके तथा कठिन रास्ते से होते हुए यात्री डेरापुफ पहुँचते है, जहाँ ठीक सामने कैलाश के दर्शन होते है। डेरापुफ में रात्रि विश्राम के पश्चात् यात्रीगण ड्रोल्मा दर्रे की ओर बढ़ते हैं, जोकि इस यात्रा की सबसे कठिन चढ़ाई है। दिल दहला देने वाली 19500 फीट की ऊँचाई पर स्थित ड्रोल्मा में आक्सीजन की कमी के कारण यात्रियों को साँस लेने में कठिनाई होती है। ड्रोल्मा के दक्षिण में हिम-आच्छादित शिवलिंग स्वरूप कैलाश के दर्शन होते हैं। इसे शास्त्रों में मेरु, रजतगिरि, गण तथा हेमकूट की भी संज्ञा दी गयी है। यहाँ से इस पवित्र पर्वत की ऊँचाई 3000 फीट है। शिव के इस अद्भुत रूप के दर्शन कर यात्री गदगद हो उठते हैं। इस पर्वत के दर्शन उपरान्त यह ज्ञान हो जाता है कि कैलाश समस्त हिमशिखरों से भिन्न एवं दिव्य है तथा यहाँ अदृश्य शक्तियों का भण्डार है। कैलाश पर्वत के दक्षिण में एलाश्रम, दक्षिण-पश्चिम में शिवगिरि, पश्चिम में अरुण, पश्चिम-उत्तर में कुकद्यान तथा उत्तर में सौगन्धिक पर्वत स्थित हैं। यह स्थान वर्ष में 8 महीने बर्फ से ढका रहता है। यहाँ तापमान शून्य या उससे भी अधिक नीचे रहता है।

ड्रोल्मा में एक चट्टान को ही शिव एवं पार्वती की रूप मान कर पूजा-अर्चना की जाती है तथा धर्म पताका फहराई जाती है। यात्री शिव-गौरी पूजन पश्चात् ड्रोल्मा से नीचे ल्हादू घाटी की ओर प्रस्थान करते हैं, जहाँ 18400 फीट की ऊँचाई पर स्थित पन्ने के रंग जैसी हरी आभा वाली झील है, जिसे गौरीकुण्ड़ कहते है। इस झील की परिधि साढे़ सात किमी0 तथा गहराई 80 फीट है। यह लगभग पूरे वर्ष वर्फ से ढकी रहती है। यहीं पर पार्वतीजी ने शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। यह सारा क्षेत्र दैविक शक्तियों के अधीन माना जाता है। माना जाता है कि चैरासी सिद्धों की इस

तपोभूमि की रक्षा आदिशक्ति भवानी की शक्तियाँ ही करतीं हैं। यहाँ पर भक्तगणों को एक पारलौकिक सत्ता की अनुभूति होती है। गौरीकुण्ड़ से नीचे जोंगछू नदी के किनारे-किनारे चलते हुए यात्री जुनरुलफुक पहँचते हैं तथा वहाँ से 15 किमी0 की यात्रा करके वापस तारचेन पहुँच कर पवित्र कैलाश-परिक्रमा पूर्ण होती है। तिब्बती और बोम्पा कैलाश की परिक्रमा घड़ी की उल्टी दिशा में करते हैं। हिमालय की पवित्र भूमि कैलाश-मानसरोवर की यात्रा कर यात्री स्वयं को धन्य मानते है, जहाँ उन्हें धरती पर ही साक्षात स्वर्ग के दर्शन हो जाते हैं।

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