(भारत भवन, भोपाल में लघु पत्रिकाओं से सम्बन्धित तीन दिवसीय परिसंवाद (12, 13 और 14 जून 2009) में संस्कृति सचिव मनोज कुमार श्रीवास्तव द्वारा दिये गये स्वागत एवं समापन भाषण)
स्वागत भाषण
समापन भाषण
लघु पत्रिकाओं के नेचर और नियति पर इतना व्यापक और विस्तृत विमर्श मेरी ज्ञात स्मृति में तो देश में कहीं नहीं हुआ. मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह आयोजन विमर्शात्मक प्रकृति का था और इसकी सफलता-असफलता का यदि कोई पैमाना हो सकता है तो इसमें हुए विमर्श की इंटेसिटी और रेंज से ही तय हो सकता है. कुछ मित्रों ने एक टी.वी. चैनल पर यह कहा कि कार्यक्रम असफल है क्योंकि दर्शक दीर्घा खाली है. मैं उन मित्रों से यही कहूंगा कि वसुधा सुधा के लिए है, विष-वमन के लिए नहीं. जिनके स्वयं के आयोजनों में गोष्ठियों की कोष्ठबद्धता का रोग हो, वे हम पर ‘संख्या’ मूलक आरोप लगाएं, यह विडम्बना ही है. हमारा यह विमर्श प्रायः भुक्तभोगियों का विमर्श था. इसके आलोचकों की विडम्बना ही है कि वे प्रतिभागी की भूमिका में उपस्थिति का विकल्प चुनने की जगह श्रोता होने का विकल्प चुनें और इस विमर्श में बौद्धिक कांट्रीब्यूशन देने की जगह टी.वी. चैनल पर साक्षात्कार दें. मनुष्य अपने निर्वाचन का, अपने वरण का संपूर्ण स्वातंत्रय रखता है लेकिन उसका चयन उसका चरित्रा भी है, उसका द्योतक भी.
उनका कहना है कि हमने इस गोष्ठी में चुन चुनकर बुलाया है. 4500 पत्रिकाओं में से सभी को को तो बुलाया भी नहीं जा सकता था. हम विमर्श कर रहे थे, आमसभा नहीं. लेकिन बुलाया हमने अशोेक वाजपेयी जी, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, रमणिका गुप्ता, जाबिर हुसैन, वंशी माहेश्वरी, शंकर जी को ही नहीं बल्कि श्री ज्ञानरंजन, कमला प्रसाद, गिरधर राठी, रमेश उपाध्याय, नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, राजेन्द्र यादव, शंभुनाथ जी को भी था. कुल 57 लोगों में से 18 नहीं आए, 39 आए हैं. जो आए हैं, वे लघु पत्रिका की दुनिया में लघु नाम नहीं हैं. जो नहीं आए, उनकी अनुपस्थिति की परिस्थिति रही होगी या मनःस्थिति, मैं नहीं कह सकता मैं कोई मोटिव्स इम्प्यूट नही करना चाहता. लेकिन जो बुलाए नहीं जा सके, उनके प्रति निरादर का या उनकी अवमानना का कोई भाव हमारे मन में नहीं हैं. कुछ के संदर्भ में तो हमारा पुराना अनुभव खराब रहा है. वे बुलाए जाते हैं और वे स्वयं गैरमौजूद होना चुनते हैं, और वे ही अपनी सुविधा के प्लेटफार्म से अपने कैप्टिव आडिएंस के सामने भारत भवन पर एकांगी होने का आरोप लगाते पाए जाते हैं. किसी दिन मैं ऐसे बंधुओं पर सूची सहित एक लेख लिखने के मूड में हूं. भारत भवन सभी का सम्मान करता है और सभी के इस सम्मान में आत्म सम्मान भी शामिल है. जिन कुछ को अभी नहीं बुलाया जा सका तो हम आगे बुला लेंगे. यह तो इस तरह का पहला प्रयास था, लेकिन लघु पत्रिकाओं की नियति पर यह कोई वन-आॅफ ईवेन्ट नहीं है. यहां से मुमकिन है कि शुरुआत हुई हो लेकिन यहां से यह मुमकिन कतई नहीं कि खात्मा लगा दिया गया हो. भारत भवन शिविरों में विश्वास नहीं करता. शिविर युद्ध के लिए होते हैं हम सृजन के लिए हैं. साहित्य में शिविरों ने युद्ध किया न किया हो, गृहयुद्ध जरूर किए हैं. और कई बार ये वार्स उतनी सिविल भी नहीं रही हैं, खासी गाली गलौच में परिणत हो गई हैं. साहित्यिक पत्राकारिता ‘सहित’ की भावना की पत्राकारिता है.
‘सहित’ की इसलिए क्योंकि लघु के लिए महानिगमों के इस युग में जगह तंग होती जा रही है. पावर पिरैमिड के शीर्ष से एक महाध्वनिµएक सिंूसमेेसल पदसिमबजमक अवपबमµकी बूम ने जैसे सारा स्पेस भर दिया है और ऐसे में बया का कलरव भी या बीणा का स्वर भी या सदाµए उर्दू की सदा भी कहीं जरूरी है, यह ध्यान नहीं-सा रह गया है. बड़ा मीडिया पहले तक स्वतंत्रा साक्षी हुआ करता था, आज तो वह निगमित और प्रतिष्ठिानित महाध्वनि का एक बवदकनपज भर है. बड़े मीडिया के हिमालयी दंभ और उसमें प्रच्छन्न और प्रकट इनबबंदबबत बंचपजंसपेउ के बीच ”युद्धरत आम आदमी“, यदि मैं रमणिका गुप्ता की लघु पत्रिका का नाम उधार लूं, पाता है कि लघु पत्रिकाएं और उनके समर्थक विचार की धारा का गृहयुद्ध लड़ रहे हैं, उसके अस्तित्व का संघर्ष नहीं जबकि ये लघु पत्रिकाएं शिक्षित की ‘स्नाॅब वैल्यू’ को संतुष्ट करने के लिये नहीं हैं, छोटे आदमी का साथ देने के लिए हैं. कल कोई कह रहा था कि ‘लघु पत्रिका’ कभी आंदोलन नहीं रही. कभी बांग्ला में देखें कि ”हंग्री जेनरेशन“ और ”लघु पत्रिकाओं“ के विस्फोट बीच क्या अन्तर्सम्बन्ध रहा? लघु पत्रिकाएं तब तक हैं जब तक कि समाज में बड़े और छोटे के अमानुषिक और वल्गर भेदभाव हैं. लघु होना विजयी होने में तभी परिणत होगा जब भी हम साथ आएंगे. विन्सेंट वाॅन गाॅग के शब्दों में ळतमंज जीपदहे ंतम दवज कवदम इल पउचनसेमए इनज इल ं ेमतपमे व िेउंसस जीपदहे जवहमजीमतण् बात इसी की है. स्माल थिंग्स के ‘टुगेदर’ होने की, उनकी एक सीरीजµएक श्रृंखला बनाने की. छोटे आदमी का साथ सिर्फ ‘वाम’ ही देगा, यह खामखयाली छोड़ दें. ये काम वे भी करते हैं जो वामनावतार की पूजा करते हैं और जिनके लिए ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ है. याद रखें शूमाखर ने यह पुस्तक बुद्ध से प्रभावित होकर लिखी थी, माक्र्स या लेनिन या ट्राॅटस्की से प्रभावित होकर नहीं.
अब कुछ काम की बातें कर लें. इस सेमीनार में हमने देखा कि लघु पत्रिकाओं की हिन्दी में कुल संख्या कितनी है, इस विषय पर ही मतैक्य नहीं है और इंप्रेशन की रेंज 450 से लेकर 4500 तक है. यह यह बहुत बड़ा मीन डिविएशन पैदा करता है. वैसे साढ़े 4 हजार होना भी कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. अकेले टोरन्टों शहर में साहित्य और संस्कृति पर केन्द्रित साढ़े आठ हजार लिटिल मैगजीन्स छपती हैं, तो 50 करोड़ के हिन्दी जनपद में साढ़े 4 हजार भी कौन सी बड़ी बात है? सवाल यह है कि क्या हम एक बारगी इस फिगर को फर्मµअपना कर लें? डस्टबुक पब्लिशिंग के संपादक और संस्थापक लेन फुल्टन ने 1970 के दशक में यह काम पहली बार अंगे्रजी की अमेरिकन पत्रिकाओं के लिए किया कि उसने ”लघु पत्रिकाओं और उसके संपादकों की, पहली ‘रियल लिस्ट’ असेम्बल कर प्रकाशित की. इससे लेखक को प्रकाशन पिक एंड चूज करने की स्वतंत्राता मिली. उसके चयन का क्षेत्रा व्यापक हो गया. इन स्वतंत्रा प्र्रकाशनों की अपजंसपजल से भी एक वृहत्तर समुदाय को परिचित कराया जा सका. तो पहला काम इन पत्रिकाओं की अविकल लिस्टिंग का है. क्या कोई हिन्दी का लेन फुल्टन बनना चाहेगा या यह काम सप्रे संग्रहालय या माखनलाल चतुर्वेदी पत्राकारिता विश्वविद्यालय के सुपुर्द किया जाए?“
दूसरे, कार्यक्रम के स्वागत भाषण में मैंने हृयू फाॅक्स के द्वारा संस्थापित ”कमिटी आफ स्माल मैगजीन एडीटर्स एंड पब्लिशर्स“ की चर्चा की थी. क्या यह काम कोई करना चाहेगा? उत्तम तो यह होता कि ये पत्रिकाएं फेडरेट होतीं ताकि इनके सम्मिलन की सिनर्जी का इस्तेमाल होता. ये एक प्रेशर-ग्रुप या लाॅबी की तरह काम करतीं. यदि ये परिसंघ नहीं बना सकती, यदि वाम-बहुलता के बाद भी इनका टेªड-यूनियनिज्म विकसित नहीं हुआ, न होना चाहता है तो हृयू फाॅक्स की तरह की समिति ही बेहतर होगी.
तीन, क्या राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के संस्कृति विभाग को कनाडा, यू.एस.ए., यू.के. इन पत्रिकाओं के संरक्षण, प्रोत्साहन और विकास के लिए सपोर्ट मनी वितरित करने की कोई नीति बनाने के लिए आग्रह करना उचित होगा? क्या वर्तमान में सांस्कृतिक संस्थाओं को अनुदान के लिए विभिन्न राज्य सरकारों के संस्कृति विभाग के चालू नियमों का इष्टतम इस्तेमाल ये पत्रिकाएं कर पा रही हैं.
चार, क्या इन पत्रिकाओं में से जो त्रौमासिक, छमाही या अनियतकालिक हैं, उनकी भी निःशुल्क मेलिंग की सुविधा देने का आग्रह केन्द्र सरकार के संचार विभाग से करना उपयुक्त होगा.
पांचवाँ, क्या राज्य तथा केन्द्र सरकार से यह आग्रह करना उचित होगा कि ओ. हेनरी अवाड्र्स तथा पुलित्जर पुरस्कारों के एक वर्ग की तरह वे सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में छपे सर्वश्रेष्ठ वर्क के लिए पुरस्कार घोषित करें.
छठवां, क्या साहित्यिक पीरियोडिकल्स की एकीकृत वेबसाइट के निर्माण का काम हाथ मंप लिया जाए. इसके लिए बड़ा डाटाबेस और हिन्दी लघु पत्रिका जगत का बड़ा सहयोग जरूरी होगा. विचार यह है कि जिस तरह से डेविडसन काॅलेज के बच्चों ने अपने शैक्षणिक पाठ्यक्रम के एक प्रोजेक्ट ”वेब आफ मार्डनिज्म“ के अंतर्गत ऐसा बड़ा प्रयास अंगे्रजी लघु पत्रिकाओं के लिए सफलतापूर्वक कर दिखाया और आज यह साइट उनके द्वारा होस्ट और मेंटेन की जाती है, वैसे ही हमारे यहां भी लघु पत्रिकाएं एक संेट्रल एक्सोसिबल लोकेशन पर प्राप्त की जा सकें. जिन लघु पत्रिकाओं की अपनी वेबसाइट है, उनकी हाइपरलिंक दी जा सकती है और बाकी पत्रिकाओं की प्रतियों की साॅफ्ट कापी प्राप्त की जा सकती हैं.
सातवें, क्या राज्य सरकारों से आग्रह किया जाए है कि मध्यप्रदेश और दिल्ली की सरकारों की तरह वे भी अपने जनसम्पर्क या सूचना-प्रचार विभाग से लघु पत्रिकाओं को विज्ञापन-समर्थन की एक सुस्थिर नीति घोषित करें. मध्यप्रदेश सरकार ने पिछले तीन वर्षों में 5 करोड़ रु. से अधिक के विज्ञापन देश भर की विभिन्न लघु साहित्यिक पत्रिकाओं को दिए हैं. दिल्ली में गत वर्ष से यह किया जा रहा है. अब अन्य राज्यों को भी इस दिशा में पहलकदमी करनी चाहिए.
आठवें, क्या केन्द्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से इस बात का आग्रह किया जाना चाहिए कि इन पत्रिकाओं की विशेष प्रकृति को देखते हुए इन्हें डी.ए.वी.पी. के विज्ञापन देने में इनके सर्कुलेशन को आधार न बनाकर इनकी साहित्यिक गुरुता को आधार बनाया जाए. संख्या का नहीं, सांख्य को. मध्यप्रदेश में साहित्य, संस्कृति, खेलकूद, विज्ञान प्राविधिकी पत्रिकाओं को सर्कुलेशन के नार्म से उन्मोचन दिया गया है.
नवें, क्या स्वयं ये पत्रिकाएं स्वयं को पंजीकृत नहीं कर सकतीं सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत? ऐसा करने पर केन्द्र और राज्य सरकार की बहुत सी योजनाओं के अंतर्गत लाभ की पात्राता उनमें आ जाएगी.
दसवें, क्या सप्रे संग्रहालय लघु पत्रिकाओं की वैसी ही मगींनेजपअम लाइब्रेरी बना सकता है जैसी कि संदीप दत्ता ने 23 जून 1978 को कलकत्ता में बनाई है. दरअसल संदीप दत्ता को इस विमर्श में बुला न पाने का का मुझे बेहद अफसोस है. उन्होंने 50,000 लघु पत्रिकाओं की यह लाइबे्ररी दो कमरों में बनाई है. क्या ऐसा कोई प्रयास हिन्दी संसार मेंµ बवूइमसज मेंµहो सकता है? क्या इन पत्रिकाओं का कोई डिजिटलाइजेशन किया जा सकता है और एक वर्चुअल लाईब्रेरी आर्काइविंग की पूरी सुविधा के साथ बनाई जा सकती है?
ग्यारहवें, प्रायः यह देखा गया है कि साहित्यिक और सांस्कृतिक मामलों में हमारा जितना ध्यान साहित्यकार या कलाकार पर रहता है, उतना सहृदय या पाठक पर नहीं. क्या हम जिस तरह से कार्यक्रमोें में कलाकार या साहित्यकार को बुलाने में दिमाग खर्च करते हैं, वैसे ही कभी आडिएंस प्लानिंग या रीडरशिप प्लानिंग के लिए हम लोग मन में किसी तरह की कुंठा या संकोच लाए बिना स्वयं को केन्द्रित कर सकेंगे.
बारहवें, क्या लघु पत्रिका संस्कृति को विकसित करने के लिए लघु पत्रिका बुक फेयर और प्रदर्शिनियां नियमित रूप से आयोजित करने के लिए सरकारों को कहना उचित होगा.
तेरहवें, क्या राज्य और केन्द्र सरकारों के ऐसे विभागों जिनमें पुस्तकों और पत्रिकाओं की खरीद होती है, से यह आग्रह करना उचित होगा कि वे इन लघु पत्रिकाओं को भी नियमित रूप से खरीदकर विद्यार्थियों और पाठकों को उपलब्ध करवायें, प्रत्येक प्रदेश में इतने स्कूल हैं कि कभी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाएं दो दो हजार प्रतियां में तो खरीदी ही जा सकती हैं.
चैदहवें, क्या लघु पत्रिका आन्दोलन से संबंधित कुछ ऐसे पहलू अभी भी बाकी रह गये हैं कि जिन पर केन्द्रित एक ऐसा ही विमर्श प्रसंग अगली बार भारत भवन में आयोजित किया जा सके.
पन्द्रहवें, यदि इन बिन्दुओं पर व्यापक सहमति हो तो क्या हम इसे भारत भवन मेनीफेस्टो का फाइनल शेप दे दें.
Know when the festival of colors, Holi, is being observed in 2020 and read its mythological significance. Find out Holi puja muhurat and rituals to follow.
मकर संक्रांति 2020 में 15 जनवरी को पूरे भारत वर्ष में मनाया जाएगा। जानें इस त्योहार का धार्मिक महत्व, मान्यताएं और इसे मनाने का तरीका।