व्यंगार्थ
खैर ये सब तो भूमिका थी. अब मैं असल बात पर आता हूँ जिसके लिए मैं आपको ये चिट्ठी लिख रहा हूँ. मेरी दिली तमन्ना है कि आप संसद के अपना लोकपाल विधेयक पारित करा लें. लेकिन आप एक चक्कर में कभी मत पड़िएगा. कुछ लोग आपसे कह रहे हैं कि आप या आपके साथी चुनाव लड़ें. खासकर कई नेता ऐसा कह रहे हैं. लेकिन अगर आप लोगों ने ये सब किया तो समझ लीजिए कि आगे कभी देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने लायक नहीं रह जाएंगे. पूछिए क्यों? बताता हूँ.
वैसे तो आपको भी जानकारी होगी, फिर भी मैं ये सब इसलिए बता रहा हूँ कि जनता को पूरी बात मालूम हो जाए. खासकर आपके साथ आए उस युवा वर्ग को जिसमें भ्रष्टाचार से लड़ने का उत्साह तो दीखता है लेकिन जिसको भारतीय राजनीति का वास्तविक चेहरा नहीं मालूम. असल में अपने देश में भ्रष्टाचार की विकरालता सरकारी दफ्तरों से नहीं बल्कि राजनैतिक दलों के दफ्तरों से शुरू होती है. हालाँकि ये कहकर मैं सरकारी दफ्तरों में होनेवाले भ्रष्टाचार की अनदेखी नहीं कह रहा हूँ. मैं सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले कई लोग अभी भी ईमानदार हैं लेकिन भारतीय राजनीति की बनावट ऐसी ही गई है कि चुनाव जीतने वाले नेता का ईमानदार बने रहना बड़ा ही मुश्किल काम हो गया है. दरअसल राजनैतिक भ्रष्टाचार तो वहीं से शुरू हो जाता है कि जब किसी को सरपंच, निगम पार्षद, विधायक या सांसद बनने के लिए टिकट चाहिए. जैसे ही किसी के भीतर ये इच्छा जागती है समझ लीजिए कि भ्रष्टाचार का एक जंजाल शुरू हो गया.
ये तो आप भी जानते ही होंगे कि ज्यादातर दलों में टिकट वितरण का काम नेता या नेताओं पर चढा़वे से शुरू होता है. जिस पार्टी की हवा होती है उसके टिकट की बोली उतनी ही ज्यादा होती है. अब अपने देश में पैसे वालों की तो कमी है नहीं. विधायक का टिकट देने के लिए नेता अगर दस लाख मांगे तो लोग बीस लाख देने वालों की लाइन लग जाती है. जाहिर है कि ऐसे में टिकटों की बोली लगती है. समझ लीजिए कि ये सब नीलामी के सीन की तरह होता है. हाँ. इतना है कि टिकटों की ये नीलाभी बंद कमरे में होती है खुले में नहीं. यह सही है कि टिकट देने के वक्त सभी पार्टियां जाति या संप्रदाय का भी खयाल करती हैं. लेकिन पैसे का खेल वहाँ भी चलता है. हर जाति या संप्रदाय से टिकट के कई दावेदार होते हैं. अब उसमें से किसको टिकट दिया जाए? जाहिर है कि जिसने ज्यादा चढ़ावा चढ़ाया उसे टिकट मिल जाता है.
हालाँकि इसकी और भी पेचीदगियाँ हैं. जैसे कुछ पार्टियों में ‘सिंगल विंडो सिस्टम’ होता है. यानी सिर्फ एक जगह चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है. लेकिन सारी पार्टियाँ ‘सुप्रीमो’ वाली पार्टियांनहीं है. आप जानते हैं कि ‘सुप्रीमो’ कुछ दलों में उसी को कहते हैं जिसके अलावा उस दल में किसी और की नहीं चलती. पर कई दल ऐसे भी हैं जहाँ कई नेता होते हैं. यानी इन दलों में एक पार्लियामेंट्री बोर्ड होता है जिसके सदस्य मिलजुल कर खाते हैं यानी टिकट बाँटते हैं. अब ऐसे दलों में नेताओं के आपसी समीकरण होते हैं. टिकटार्थी को इस समीकरण को समझना पड़ता है. सही समीकरण के मुताबिक चढ़ावे का इंतजाम करना होता है. समीकरण ठीक से नहीं समझने पर टिकट भी नहीं मिलेगा और पैसा भी गया. कई नेता ऐसे भी होते हैं जो सीधे सीधे पैसा नहीं लेते. वे अपने खास लोगों के माध्मय से डील करते हैं. टिकटार्थी को यह समझना पड़ेगा कि जिस शख्स के माध्यम से डील हो रही है वो अपने शेयर लेने के बाद नेता तक पूरा पैसा पहुंचाएगा या नहीं. नेता की तरफ से डील का दावा करनेवाले कुछ ऐसे भी बिलौलिए होते हैं जो टिकटार्थियों से पैसा लेने के बाद राजधानी छोड़कर रफूचक्कर हो जाते हैं. ये बाद में पाँच साल फिर से राजधानी लौटते हैं. तो इस तरह टिकटार्थियों को इस रहस्य को भी समझना पड़ता है.
कुछ दल ऐसे बड़े भी हैं जहाँ लोकतांत्रिक प्रक्रिया ज्यादा हावी रहती है. यानी उनमें नीचे के लोगों को कुछ चढ़ावा चाहिए. मिसाल के लिए कुछ दल चुनाव के पहले उम्मीदवारों के चयन की योग्यता का आकलन करने के लिए ऑब्ज़र्वर बहाल करते हैं. इन ऑब्ज़र्वरों ने हाईकमांड को किसी के लिए अनुशंसा नहीं की तो मान लीजिए कि टिकट मिलने का चांस नहीं. इसलिए अनुशंसा की चिट्ठी पाने के लिए भी इंतजाम करना पड़ता है. मतलब ऑब्ज़र्वरों को पटाओ. पटाने के लिए पैसा भी चाहिए और कला भी. ऑब्ज़र्वरों की पौ बारह इसलिए रहती है उन्हें हर चुनाव क्षेत्र से तीन नाम भेजने पड़ते हैं. इसलिए रिस्क ज्यादा नहीं होता है. टिकट दिलाने की जिम्मेदारी भी नहीं होती. ये ठीक है कि ऑब्ज़र्वर को कम पैसा मिलता है लेकिन तीन लोगों से मिलता है. ये भी हो सकता है कि हर चुनाव क्षेत्र के लिए तीन ऑबजर्वर हों. फिर तीनों को माल चाहिए. संक्षेप में समझ लीजिए की कुछ बड़ी पार्टियांअपने छुटभैये नेताओं के भी खाने-कमाने का इंतजाम करती हैं ताकि सबका कुछ न कुछ रोजगार चलता रहे. जिसको टिकट नहीं देना है उसे ऑब्ज़र्वर बना दिया. उसके राशन पानी का भी इंतजाम हो गया. इसलिए अपने देश में टिकट दिलाने का कारोबार भी बढ़ा है.
अब इतना समझ लीजिए कि टिकट मिल जाने के बाद भी जीत आसान तो नहीं होती. जीतने के लिए कई जगह खिलाना पड़ता है. सबसे पहले तो पार्टी के कार्यकर्ताओं को. फिर कई जगह चुनावी मैदान में खड़े हो गए निर्दलियों को. कई बार वे लोग भी चुनाव में विद्रोही उम्मीदवार के रूप में खड़े हो जाते हैं जिनको पार्टी से टिकट नहीं मिलता है. पार्टी की तरफ से उनको मनाने की कोशिश होती है ताकि वोट न बँटे. इस तरह के उम्मीदवारों को ‘वोटकटवा’ कहा जाता है. ये ‘वोटकटवा’ तभी चुनाव से अपनी उम्मीदवारी की वापसी की घोषणा करते हैं जब उनका ‘खर्चा पानी’ निकल जाए. ‘खर्चा पानी’ का मतलब यह होता है कि उस उम्मीदवार ने टिकट पाने के लिए दौड़ धूप में जितना खर्चा किया-होटल का बिल देने में, नेताओं के यहाँ समर्थकों की भीड़ जुटाने में, वगैरह-वगैरह, वह सब उसे मिले. अब पार्टी के घोषित उम्मीदवार को जीतना है तो ‘विद्रोही उम्मीदावारों’ को मनाना पड़ेगा. बिना लिए आजकल कौन मानता है? यानी‘वोटकटवा’ होना भी एक व्यवसाय है. लेकिन उसके लिए भी काफी पापड़ बेलने पड़ते हैं. हर निर्दलीय ‘वोटकटवा’ नहीं हो सकता. तो समझ लीजिए कि चुनाव जीतने वाली पगडंडी बड़ी संकरी है. लोकसभा, विधान सभा, नगर निगम या पंचायत तक पहुंचने के लिए कई तरह के तीन-पाँच करने होते हैं. और ऐसा नहीं है कि ये सारा तीन-पाँच सिर्फ टिकट पाने के लिए करना होता है. अब तो राजनीतिक दलों में जिला अध्यक्ष या जिला महामंत्री बनने के लिए भी ऊपर के नेताओं को भोग लगाना पड़ता है. इसलिए मैं ये कह रहा हूँ कि चुनाव लड़ने, टिकट बांटने या संगठन बनाने के चक्कर में आप पड़े तो समझ लीजिए कि आपका आंदोलन गया. जेपी आंदोलन का नजारा आप देख चुके हैं. वो भी जाकर चुनावी राजनीति के दलदल फँस गया. नतीजा सबके सामने है.
खैर, ये सब दिल की कुछ बातें थीं जो आपको बता दीं. बाकी आप खुद ज्ञानी हैं. लेकिन इतना फिर से कहूँगा कि जब तक राजनैतिक दलों के भीतर व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जाएगा, हमारे देश में सदाचार नहीं आएगा. ऊपर टिकट लेने की जिस प्रकिया का मैं ने वर्णन किया है उसका मैं भुक्तभोगी रहा हूँ. मुझे कभी भी चुनावी टिकट नहीं मिल सका.
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