‘कथाक्रम’ के नये अंक (जुलाई-सितम्बर-2011) में उदय प्रकाश ने अपने साक्षात्कार में कहा है कि आलोचना की स्थिति को व्यापक अकादमिक फेल्योर के रूप में देखना चाहिए. उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया है कि हिन्दी में रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास को लेकर कई सन्देह और आपत्तियाँ हैं लेकिन अभी तक वही हिन्दी का मानक इतिहास बना हुआ है. हिन्दी में गुजराती की तरह शब्दसागर, थिसारस, विश्वकोष जैसे बहुत सारे काम नहीं हैं. उनकी यह बात अंशतः गलत भी हो तो यह सही है कि अरविंद कुमार के कार्य को छोकड़र इस प्रकार के तमाम स्तरीय कार्य लगभग चौथाई सदी पहले ही हुए हैं.
उदयप्रकाश इस स्थिति का कारण बताते हैं कि ‘‘इस भाषा के बनने से लेकर के किसी के द्वारा एप्रोप्रियेट कर लिये जाने तक का एक पूरा इतिहास है. इसे क्या बनने दिया गया और जिस रूप में बनाया गया. जिस हिन्दी को आप जानते हैं, क्या यह वो हिन्दी है जो जीवन-व्यवहार में है? तो कहीं न कहीं एक स्प्लिट है इनके बीच में.’’ उदयप्रकाश अपने साक्षात्कार में यह नहीं बताते कि एप्रोप्रियेशन किन लोगों और समूहों के द्वारा किया गया और साक्षात्कारकर्ता पल्लव और अमितेश कुमार इस बाबत और सवाल करते हैं. लेकिन उदयप्रकाश का इशारा स्पष्ट रूप से हिन्दी के संस्थानों पर काबिज वर्ग पर है. इस संदर्भ में एक और महत्वपूर्ण बात उन्होंने यह कही है कि हिन्दी को जो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि मिली उसमें उसे संस्कृत जैसी क्लासिक भाषाओं का एस्थेटिक ट्रेडिशन के साथ-साथ पश्चिम की आलोचना-सिद्धान्त विचार-सरणियाँ भी शामिल थे.
मॉडर्न पाश्चात्य और परम्परा के मेल से, इंटरएक्शन से आलोचना में तीसरी चीज पैदा होनी चाहिए थी जो कि समकालीन रचना और जीवन में आ रही थी. जॉर्ज लूकाच या चीन के विद्वानों ने ऐसा काम किया लेकिन हमारे यहाँ या तो इसको या तो उसको अपना लिया गया. ‘‘इससे होता है कि आपके पास पहले से सिद्धान्त हैं, दिक्कत यहीं से होती है कि जब जो रचना वैसी नहीं आ रही तो आप उसको काटते हैं, छाँटते हैं या उसको रिजेक्ट करते हैं, खारिज करते हैं.’’ उदय प्रकाश इसके पीछे हिस्ट्री और रिसर्च को लेकर ईमानदारी और कमिटमेंट का अभाव देखते हैं. कई पहलुओं को छूनेवाले इस साक्षात्कार में उदयप्रकाश की कई मान्यताएँ गौरतलब, बहसतलब और जवाबतलब हैं.
साक्षात्कार या इंटरव्यू हिन्दी साहित्य में एक विधा के रूप में कब से मान्य हुआ, यह शोध का विषय है पर यह समझ बनती है कि आरंभिक गद्य-साहित्य मुख्यतः पत्र-पत्रिकाओं के जरिये आया तो उनमें प्रकाशित साहित्यिक महत्व या उपयोग वाली हर विधा को साहित्यिक विधा मान लिया जाए. रामचन्द्र तिवारी ने साक्षात्कार-विधा का पहला प्रकाशन विशाल भारत में सितंबर 1931 में प्रकाशित बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा लिखित ‘‘रत्नाकरजी से बातचीत’’ और जनवरी 1932 में प्रकाशित ‘‘प्रेमचंदजी के साथ दो दिन’’ को माने जाने की संभावना जताई है. उनके अनुसार हिन्दी में इस विधा की पहली पुस्तक बेनीमाधव शर्मा की ‘‘कवि-दर्शन’’ है. साक्षात्कार या इंटरव्यू को लेकर कुछ बुनियादी तकनीकी समस्याएँ हैं. अव्वल तो यह कि उन्हें किनकी रचना माना जाए?
इंटरव्यू करने वाले की या इंटरव्यू देने वाले की? यह समस्या महज कॉपीराइट की समस्या नहीं है. शुरुआत में साक्षात्कारों की जो पुस्तकें प्रकाशित हुईं वे साक्षात्कार लेने वाले या प्रश्नकर्ताओं की थीं पर अब साक्षात्कार देने वालों की भी पुस्तकें प्रकाशित होती हैं. दूसरे, साक्षात्कार प्रमुखतः एक वाचिक विधा है, हालांकि अब कई लोग लिखकर भी सवालों के जवाब देते हैं लेकिन अधिकांशतः साक्षात्कार रिकार्ड किए गए संवाद का पुनर्लेखन होता है. संवाद की लय में कई बार वाक्य अधूरे होते हैं, विषयांतर होते जाते हैं, दुहराव भी आते हैं. कुल मिलाकर एक अव्यवस्था सी होती है जिसे संवाद के क्षण में तो भंगिमाओं के द्वारा दुरुस्त कर लिया जाता है पर लिप्यंतरण में वह बात नहीं आ पाती.
सामान्यतः साक्षात्कारकर्ता ऐसी अव्यवस्था को दुरुस्त कर लेते हैं लेकिन कई बार साक्षात्कृत व्यक्तित्व की शैली और व्यक्तित्व का साक्षात्परिचय देने के लिए और कई बार वक्तव्य में अपनी ओर से कोई परिवर्तन करने से बचने के लिए ऐसी अव्यवस्था बनी रहने देते हैं. विचारगर्भ वक्तव्यों में इससे कभी-कभी भ्रम की गुंजाइश या अस्पष्टता बनी रहती है. ऐसा एकाध जगह पर उक्त इंटरव्यू में भी हुआ है. पर कुछ साक्षात्कार ऐसे भी लिये गये हैं जिनमें साक्षात्कृत व्यक्तित्व की आंतरिक विशेषताएँ भी खुले रूप में पाठकों के सामने नमूदार होती हैं. वागर्थ के जुलाई अंक (192) में पल्लव द्वारा महेश कटारे का लिया गया इंटरव्यू ऐसा ही है. साक्षात्कारकर्ता ने बहुत संक्षिप्त सवालों के जरिये महेश कटारे के पारदर्शी व्यक्तित्व की सहजता, मस्ती, तथा जीवन और लेखन को लेकर उनकी अकुंठित धारणाओं को सामने आने का रास्ता दे दिया है.
एक और साक्षात्कार जिसका जिक्र करना आवश्यक है, वह है ‘कथादेश’ (जुलाई 2011) में ओमा शर्मा द्वारा एम.एफ.हुसेन का लिया गया साक्षात्कार. ओमा शर्मा ने जनवरी 2007 में लिए गए इस साक्षात्कार को हुसेन के जीवनकाल में क्यों नहीं छपवाया इस बात का स्पष्टीकरण उन्होंने यह कहकर दिया है कि ‘‘जिस मानसिकता के साथ उनसे बातचीत करने की तैयारी मैंने की थी, उनके ‘उखाड़फेंकू’ रवैये ने छिन्न-भिन्न कर दी. एक ‘टेस्ट मैच’ को ‘टी-20’ में सिकोड़ना पड़ा. कितने सवाल यूँ ही पड़े रह गये. यही वजह रही कि यह बातचीत अभी तक टेप पर ही पड़ी रही.’’ देखा जाए तो यह बातचीत कम लम्बी नहीं है और खुद हुसेन के शब्दों में ‘‘मैंने इतनी देर किसी से बातचीत नहीं की है’’.
ओमा शर्मा का यह स्पष्टीकरण नाकाफी जान पड़ता है. सात से ज्यादा पृष्ठों में फैली इस बातचीत को टेप से 4 साल बाद निकालते हुए ओमा शर्मा ने जिस बारीकी में हुसेन साहब की भंगिमाओं और मनस्थितियों को याद रखा है वह चकित करनेवाला है. इस बातचीत में यह देख पाना मुश्किल नहीं कि इस इंटरव्यू को लेकर हुसेन और ओमा शर्मा दोनों के इरादे अलग-अलग हैं और इस कारण इंटरव्यू में गतिरोध पैदा होता है जिसका जिम्मा ओमा शर्मा हुसेन के ‘‘उखाड़फेंकू’’ रवैये को देते हैं. ओमा शर्मा ‘‘प्रतिबद्ध’’ होकर दुबई इसी ‘‘प्रमुख कार्य’’ को करने जाते हैं कि हुसेन पर लगे आरोपों और सवालों (जो ओमा शर्मा के व्यक्तिगत नहीं तमाम आम लोगों और तैयब मेहता जैसे कलाकारों की ओर से भी हैं. उनका जवाब हुसेन से लें. दूसरी ओर हुसेन यह उम्मीद रखते हैं कि उनसे ‘कला के बारे में’ सवाल किए जाएँ विवादास्पद सवाल नहीं. ओमा जब हारकर उनसे उनकी रचना-प्रक्रिया से संबंधित सवाल पूछते हैं तो हुसेन कला के सृजन को दुव्र्याख्येय बताते हुए इस सवाल को बेवकूफी भरा करार देते हैं. साक्षात्कारकर्ता के तौर पर ओमा का धैर्य और प्रतिबद्धता दोनों काबिले-तारीफ हैं. गतिरोध के बावजूद यह साक्षात्कार हुसेन को एक अनूठे और प्रिय कलाकार के रूप में प्रस्तुत करता है. कथादेश के इसी अंक में हुसेन पर प्रभु जोशी की टिप्पणी न सिर्फ आत्मीयतापूर्ण और मार्मिक है बल्कि चित्रकला की समीक्षा को लेकर हिन्दी में प्रायः जो अबूझ सी पहेलीनुमा गद्य(?) लिखा जाता है उसके मुकाबले एक वास्तविक आकलन भी है.
साक्षात्कारों में ‘कथन’ (71, जुलाई-सितंबर 2011) में प्रकाशित संज्ञा उपाध्याय द्वारा सिद्धार्थ वरदराजन का लिया गया इंटरव्यू पठनीय है. मीडिया में स्टिंग ऑपरेशन, सनसनीखेज खुलासे, रहस्योद्घाटन, गोपनीयता, प्राइवेसी जैसे मुद्दों के बीच की बारीक लकीर को यह बातचीत बहुत निर्भ्रान्त तरीके से उजागर करती है. अच्छे साक्षात्कार की विशेषता यह है कि वह ज्ञान प्राप्त करने के लिए किए गए प्रश्नोत्तर के ढाँचे में न होकर संवाद के तौर पर हो. कथन के इस संवाद के अलावा ऐसी एक और बात-चीत ‘अन्यथा’ पत्रिका (अंक-16) में प्रकाशित अर्चना वर्मा और राजेन्द्र यादव की बातचीत है जो मध्यवर्ग और सामाजिक सांस्कृतिक ताने-बाने की बुनावट को लेकर की गई है. इस बातचीत में अर्चना जी ने सेंटर ऑफ ग्लोबल डेवलपमेंट की अध्यक्ष नैन्सी बर्डजॉल के हवाले से एक तथ्य प्रस्तुत किया है कि (विकासशील देशों में) मध्यवर्ग वह है जिसकी रोजाना की आमद दस डॉलर अर्थात् 450-500रु है. भारत में ऐसे लोग जनसंख्या के ऊपरी 5-7 फीसदी के बाहर नहीं हैं. ‘‘अब या तो उच्चवर्ग है या निम्नवर्ग है. बीच में दोनों को जोड़ने वाले हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य-चेतनाएँ, सपने देखनेवाले पुराने वर्ग का सफाया हो चला है’’. एक सवाल उठता है कि अण्णा हजारे के आन्दोलन में सड़क पर उतर आए लोग नए मध्यवर्ग के नुमाइंदे हैं या पुराने मध्यवर्ग के?
विवेचित पत्रिकाएँ:दृ
1. कथाक्रम, सम्पादक, डी-107, महानगर विस्तार, लखनऊ-226006.
2. वागर्थ, सम्पादक,भारतीय भाषा परिषद, 36 ए शेक्सपियर सरणी, कोलकाता-700017.
3. कथादेश, सहयात्रा प्रकाशन प्रा.लि., सी-52, जेड-3, दिलशाद गार्डन, दिल्ली-110095.
4. कथन, 107, साक्षरा अपार्टमेंट्स, ए-3,पश्चिम विहार, नईदिल्ली-110063.
5. अन्यथा, 2035, गेग-1, अरबन एस्टेटडुगरी, लुधियाना-141013.
©
- डी-402, विदिशा अपार्टमेंट,
इन्द्रप्रस्थ विस्तार, दिल्ली-110092
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