दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजे कांग्रेस को यह बताने के लिए काफी हैं कि उसे एकसाथ दो सत्ताविरोधी लहर का का सामना करना पड़ा । एक तो केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ बने माहौल ने दिल्ली नगर निगम में बीजेपी के भ्रष्टाचार की पोल खुलने से बचा ली और दूसरा याद दिला दी कि शीला दीक्षित सरकार पर राष्ट्रमंडल खेल के दौरान लगे आरोप मतदाताओं के जेहन में आज भी चस्पां हैं । इन दोनों सच्चाई से मुंह मोडने के लिए कांग्रेस कह सकती है कि उत्तर प्रदेश में जिस तरह लोगों ने उसमें बसपा का विकल्प बन पाने की ताकत को नहीं भांपा उसी तरह दिल्ली की जनता ने भी नगर निगम चुनाव में बीजेपी के खिलाफ उसकी ताकत को तवज्जो नहीं दी। नगर निगम की सत्तासीन पार्टी के खिलाफ एकमुश्त मतदान करने के बजाए विभिन्न दलों और प्रत्याशियों के लिए वोट करके दिल्ली के लोगों ने कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
दिल रखने को कांग्रेस का ये ख्याल भी अच्छा है कि अगर मंहगाई की मार नहीं होती तो ऐसी कोई वजह नहीं थी कि साफ सफाई और पार्किंग के खास्ताहाल मसले से परेशान मतदाता आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे नगर निगम की चुनाव में बीजेपी को दोबारा वोट करने की भूल करते । हालांकि यह तर्क पेश करते वक्त कांग्रेस के नेता जरूर भूल जाते हैं कि मंहगाई की मार से पिस रहे लोग इस कदर गुस्से से भरे हैं कि वो वोट करने वक्त यह सोचने की ताकत गंवा दी है कि वह केंद्र की मनमोहन सरकार के लिए नहीं बल्कि दिल्ली नगर निगम चुनाव के लिए मतदान कर रहे हैं। लोगों के गुस्से का ही नतीजा है कि कुल मतदान में खुद के हिस्से आए मतों का प्रतिशत घटने के बावजूद बीजेपी बल्ले बल्ले कर रही है।
नियति की विडंबना देखिए कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की जिस जिद से नगर निगम को तीन हिस्सों में बांटने और बीजेपी के आधार पर चोट करने की चाल चली गई अब वहीं चाल उलट गई । बीजेपी उप राज्यपाल से लेकर गृह मंत्रालय तक जिस पहल का विरोध दर्ज कर रही थी वही अब उसके लिए फायदे का सौदा बनकर आई है । कहते हैं ना राजनीति के व्यापार में कुछ भी हो सकता है। वहीं मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के साथ हुआ है। पहले एक मेयर को मैनज करने में मुसीबत का सामना कर रही शीला दीक्षित को अपने बुने दुष्चक्र में फंसकर बीजेपी के तीन मेयर से मुकाबिल होंगी।
स्पष्ट बहुमत को लेकर यूं तो मुसीबत दक्षिण दिल्ली नगर निगम पर आती दिख रही है ,जहां सबसे बडी पार्टी के तौर पर उभरी बीजेपी पूर्ण बहुमत के लिए 53 पार्षदों के जरूरी आंकडों से दूर रह गई है । दक्षिण दिल्ली के बीजेपी दिग्गजों का गढ कहा जाता है । विजय जॉली से लेकर विजय कुमार मल्होत्रा और अरुण जेटली तक का ताल्लुक दक्षिण दिल्ली से है। अब इन महारथियों को पार्टी का मेयर बनाने के लिए निर्दलियों के मानमनव्वल में योगदान करना होगा । इसी तरह कांग्रेस के लिए पूर्वी दिल्ली में लगा झटका ज्यादा दुखदायी है । सबसे कम सदस्यों वाले पूर्वी दिल्ली नगर निगम का निर्माण ही मुख्यमंत्री के सांसद पुत्र संदीप दीक्षित के भविष्य की राजनीति का ख्याल रखते हुए किया गया । फिर यहां मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के दो आंखों के तारे शहरी विकास मंत्री डॉ अशोक वालिया और शिक्षा मंत्री अरविंदर सिंह लवली का गढ़ रहा है । दिल्ली की सियासत में जीत की हैट्रिक लगाकर तीसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्हाल शीला दीक्षित इस चुनाव से पहले तक लवली और वालिया ने बीजेपी से ना सिर्फ पूर्वी दिल्ली में कांग्रेस को स्वर्गीय एचकेएल भगत की विरासत वापस दिलवाई है बल्कि राजनीति की नौसिखिया समझ रखने वाले मुख्यमंत्री के पुत्र संदीप दीक्षित को लगातार दूसरी बार सांसद बनवा रखा है । मुख्यमंत्री के भरोसे का पूर्वी दिल्ली को भरपूर फायदा मिलता रहा है। नगर निगम चुनाव घोषणा से ऐन पहले दिल्ली को मोनो रेल देने की जिस सबसे बडी योजना का ऐलान किया गया उसका सीधा लुभावना ताल्लुक पूर्वी दिल्ली के गांधीनगर और त्रिलोकपुरी के मतदाताओं से है । नतीजे बता रहे हैं कि सारे दुखिया यमुना पार की छवि को बदलने में सफल रही शीला सरकार को सबसे बडा झटका यमुना पार में ही लगा है।
दिल्ली से सात संसदीय सीट हैं । तीन भाग में नगर निगम को बांटते वक्त महज एक संसदीय सीट पूर्वी दिल्ली के लिए अलग से नगर निगम बनाने के फैसले को निशाने ली गई मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर उनके चहेते मतदाताओं ने ही निशाना साध दिया । जाहिर तौर पर नतीजों का दूरगामी सियासी असर होगा । प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जयप्रकाश अग्रवाल और केंद्रीय मंत्री अजय माकन बरसों से शीला दीक्षित विरोधी आधार को मजबूती देने की जिस ताक में लगे थे वह वक्त आ गया है। अब बस इस बात का इंतजार है कि शीला के खिलाफ लामबंदी का सार्वजनिक ऐलान कब और किस तरह से होता है।
ऐसे में लाजिम सवाल है कि तो क्या शीला दीक्षित के लिए गिरकर सम्हलने का और मौका मिलने वाला है।.या फिर नतीजों से घबराकर कांग्रेस पार्टी तेरह साल से दिल्ली में कांग्रेस की मस्कट बनी शीला दीक्षित को ही बदल देगी । हालांकि बिखरी बीजेपी के गले में जनता ने जिस तरह से नगर निगम चुनाव में दूसरी बार जीत का हार पहनाया है उससे सबक लेकर बीजेपी के लिए सुधरने और सम्हलकर सधे कदम चलने का वक्त है । महज अठारह महीने बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव होना है । बीजेपी पुर्नपरीक्षा होनी है और तय होना है कि नगर निगम चुनाव नतीजों को बीजेपी दोहरा पाती है या नहीं। दिल्ली की खोई सत्ता को पंद्रह साल बाद हासिल कर पाती है या नहीं । जीत के जश्न के ढोल नगाडों की आवाज में बहरे हो जाने के बजाए बीजेपी के लिए अभी से ही विधानसभा चुनाव में लगन से लगना इसलिए भी जरूरी है कि 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद देश की सत्ता पर काबिज होने के लिए लोकसभा चुनाव होने हैं।
दिल्ली नगर निगम चुनाव नतीजों से हतप्रभ और हताश कांग्रेस के लिए यह शामत की घडी है । महीने भर में दस जनपथ को मुंबई म्युनिसिपल और यूपी ,गोवा व पंजाब विधानसभा चुनावों के बाद अब दिल्ली की जनता से खारिज होने का दंश झेलना पड रहा है। राजनीति उम्मीद वालों की दुनिया का नाम है । सकारात्मकता राजनीति का मूलमंत्र है । ऐसे में एकबार फिर से कहा जा रहा है कि दिल्ली नगर निगम के नतीजे कांग्रेस के लिए शॉक एब्जारबर बनकर आया है । 2007 में भी एमसीडी चुनाव में कांग्रेस को हार का दंश झेलना पडा था और साल भर बाद ही हुए विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने शीला दीक्षित के प्रति न सिर्फ तीसरी बार आस्था जताया था बल्कि विधानसभा के तुरंत बाद हुए लोकसभा चुनाव में नगर निगम चुनाव जीत की खुमारी में जी रही बीजेपी को संसदीय चुनाव में दिल्ली के वोटरों ने तमाचा जडा था और दिल्ली के सातों के सात संसदीय सीट कांग्रेस के खाते में चली गई थी।
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