पत्राकारिता से जान पहचान बचपन में ही हो गई थी लेकिन पत्राकार के रूप में नौकरी करने का अनुभव मिला जब मैंने देश के एक काफी पुराने अंगे्रजी अखबार में प्रशिक्षु के तौर पर वहाँ नौकरी की.
पत्राकारिता से जब मेरी जान पहचान हो रही थी तो मुझे सिखाया गया था कि इसके उसूल क्या हंै? इसकी भूमिका समाज में कितनी महत्वपूर्ण है. साथ ही साथ यह भी कहा गया कि यह एक मिशन की तरह है और इसका फायदा समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों तक पहुँचना चाहिए.
शायद इसी बात को गाँठ बांधकर मैंने भी पत्राकारिता की शुरुआत की.
अखबार में मुख्य रिपोर्टर की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है. स्थानीय खबरों के चयन का अधिकार उसी के पास होता है.
प्रशिक्षु के तौर पर काम करने की स्वीकृति संपादक से मिलने के बाद मैं चीफ रिपोर्टर से मिलने गया. प्रशिक्षु को इन्हीं के अन्दर काम करना होता है. लेकिन मेरी मुलाकात वहाँ के चीफ रिपोर्टर से वैसे हुई जैसे किसी मल्टीनेशनल कम्पनी का अधिकारी नौकरी देने के लिए साक्षात्कार ले रहा हो. नतीजा भी उसी के अनुकूल हुआ. मुझे काम करने की स्वीकृति तो मिली लेकिन कहा गया कि आप दफ्तर में तीन दिन तक सिर्फ अखबार पढेगे.
तीन दिन के बाद मैंने अपराध से जुड़ी हुई खबरों को प्रेस विज्ञप्ति से लेकर बनाना शुरू किया. यह सिलसिला कई दिन तक चला. इसके बाद मेरी पहली बाईलाईन स्टोरी छपी जो दिल्ली के स्थानीय निकाय के चुनाव से जुड़ी हुई थी.
इसी बीच चैदह अप्रैल का दिन गया. इस दिन देश में अम्बेडकर जयंती मनायी जाती है. मुझे यह लगा कि अम्बेडकर जयंती दिल्ली के अतिसंवेदनशील इलाके ‘पार्लियामेंट स्ट्रीट’ में काफी चहल पहल से मनाई जाती है जबकि इससे जुड़ी खबरें काफी कम छपती हैं. उस दिन मैं लगभग 3-4 घंटे वहाँ पर घूम-घूम कर अपनी कल की स्टोरी की रूपरेखा देने के जुगाड़ में लग गया. मैंने गीता बोध, एक दलित महिला और उसके पति भूपसिंह बोध से बातचीत की जो वहाँ बाबा साहेब भीमराब अम्बेडकर से जुड़े साहित्य स्वयं गानों की सीडी बेच रहे थे. उनकी बातचीत ने मुझे काफी प्रभावित किया.
अपनी स्टोरी की पूरी रूपरेखा तैयार कर दफ्तर पहुँचकर फटाफट मैंने स्टोरी टाइम पर मुख्य रिर्पोटर को भेज दी.
अखबार के दफ्तर में रोज-रोज से जुड़ी खबरों को जाने का एक निश्चित समय होता है. उस समय के बाद सामान्यतः स्टोरी नहीं जाती है. मैंने यह स्टोरी तैयार करने से पहले मुख्य रिर्पोटर से बातचीत कर ली थी. जब स्टोरी जाने का अन्तिम समय आया तो उसने इस स्टोरी को देखकर मुझे बुलाया (वैसे भी वह मेरी स्टोरी को सबसे अन्त में ही देखता था.) और डाँट के लहजे में कहा कि अभी तक तुम्हें स्टोरी लिखना नहीं आया. दरअस्ल मैंने स्टोरी की शुरुआत उस दलित महिला गीता बोध के कार्य से की थी जो वह वहाँ पर रही थी उसने जैसे ही आगे की स्टोरी को पढ़ा और बड़े तेज आवाज में बोला-वाट बाबा साहेब पूरे बोलने का लय उसकी सोच को बयाँ कर रहे थे.
मैंने कहा क्या हुआ सर. उसने कहा कि बाबा साहेब क्या होता है अभी तुम्हें तुरन्त रिज्वायंडर मिल जाएगा. पहली बार इस ‘रिज्वायंडर’ शब्द से परिचय हुआ था. मैंने स्टोरी में भीमराव अम्बेडकर का पूरा नाम बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर लिखा था. वैसे भी किसी का नाम किसी लेख या स्टोरी में पहली बार उपयोग किया जाता है तो पूरा नाम ही लिखते हैं जैसे महात्मा गाँधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि.
उसने कहा तुरन्त तुम उस स्टोरी को ठीक करो नहीं तो मैं इसे किल कर दूँगा. कुछ तब्दीलियाँ करने के बाद मैंने स्टोरी को पुनः उसके पास भेज दी लेकिन स्टोरी भेजने का समय समाप्त हो रहा था. अतः मेरी स्टोरी किल हो गयी.
दफ्तर में अब तक बिताये हुए सारे दिन मेरे विचारों को बता रहे थे जो कि उस मुख्य रिपोर्टर के स्वभाव से विपरीत थे. मैं दफ्तर में खबरों की बात करता तो वह गर्लफ्रेड या बायफ्रेंड तथा ब्रांडेड कपड़ों की बात करता. दरअसल उसे तो यह भी देखना था कि खबर के साथ-साथ खबर देने वाला कैसा है. इसके बाद उसने इसी तरह की कई स्टोरी को किल की.
जब मेरी भीमराव अम्बेडकर से जुड़ी स्टोरी को किल किया गया तो मुझे उस आदमी का चेहरा दिमाग मे उभरने लगा जो वहाँ किताब की स्टाॅल लगाकर अम्बेडकर से जुड़ी हुई किताबें बेच रहा था. उससे मैंने लगभग 15 मिनट तक बातचीत की थी और उसने बातचीत के कम में कहा था कि आप क्यों इतनी मेहनत कर रहे हैं. यह स्टोरी अखबार वाले छापेंगे तो नहीं ही. यह कोई किसी बड़े पार्टी के ऊँची जाति के नेता का जन्मदिन थोड़े ही है यह तो एक दलित का जन्म दिन है.
अब सवाल केवल इस स्टोरी के किल होने का नहीं था. इसमें साथ तो मेरे उसूल भी जुड़े थे जिसके सहारे मैंने पत्राकारिता की शुरुआत की थी. अब मुझे डर अपने उसूल को बचाने को लेकर लग रहा है.
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