आज के जमाने में सार्वजनिक जीवन में पत्राकारिता और पत्राकारों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है. हिंदुस्तान में या तो सरकार के जरिये या अखबारों के मालिकों के जरिये या फिर विज्ञापनदाताओं के दबाव से तथ्यों के दबाये जाने की संभावना है. गो कि मैं इस बात का बुरा नहीं मानता कि अखबार अपनी नीति के मुताबिक किसी खास तरह की खबरों को तरजीह दें, लेकिन मैं खबरों को दबाये जाने के खिलाफ हूँ, क्योंकि इससे दुनिया की घटनाओं के बारे में सही राय बनाने का एकमात्रा साधन जनता से छिन जाता है.
जरूरी यह है कि लोगों को सही और काफी सूचनाएँ मिलें और उन्हें अपनी राय कायम करने दी जाये, गो कि अखबार बेशक सार्वजनिक मत के निर्माण में मद्द देते हैं. जर्मनी और इटली के अखबार आजाद नहीं हैं. वे वही चीजें छापते हैं, जो नात्सी और फासिस्ट शासक छपवाना चाहते हैं. हकीकतन जर्मनी के जर्मनों को अपने अखबारों से यह नहीं मालूम हो पाता कि उनके अपने मुल्क में क्या हो रहा है. इन मामलों की जानकारी वे उन विदेशी अखबारों से हासिल करते हैं, जिन्हें वहाँ आने दिया जाता है. मैं बरतानवी अखबारों की तारीफ करता हूँ. इंग्लैंड में भी, कुछ खास तरह की खबरों को जान-बूझकर दबाया जाता है, गोकि ब्रिटिश सरकार खबरें छापने के मामले में अखबारों के अधिकार में खुले आम दस्तंदाजी नहीं करती. लेकिन अखबारों को प्रभावित करने के ब्रिटिश फाॅरिन आॅफिस के अपने तौर-तरीके हैं और अखबारवाले आमतौर पर उसके सुझाव मान लेते हैं. जहाँ तक हिंदुस्तान का ताल्लुक है, ब्रिटिश अखवारों का भरोसा नहीं किया जा सकता. वे हिंदुस्तान के बारे में कुछ खास मामलों के अलावा सच्ची बातें नहीं छापते. मैं उम्मीद करता हूँ कि हिंदुस्तान में उन खबरों को दबाने की प्रवृत्ति नहीं बढ़ेगी, जिन्हें निहित-स्वार्थ पसंद नहीं करते.
वह ताकत अपने हाथ में रखिये अगर वह गयी तो आपका महत्व भी गया.
(बंबई के पत्राकारों द्वारा दिये गये अभिनन्दन-पत्रा का जवाब, 24) अगस्त, 1936. ‘द बाम्बे क्रॉनिकल’, 25 अगस्त, 1936.
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