आदरणीय महामहिम राष्ट्रपति जी,
आपके कुर्सी खाली करने से पहले देश में अराजकता का माहौल बन रहा है। सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों ने कमर कस ली है कि कुर्सी पर से आप उतरीं नहीं कि उनका बंदा उछल के चढ़ जाए। अरे, दो चार दिन कुर्सी खाली रह भी जाए तो कौन सी प्रलय आ रही है ! बंदा किस साइज और कित्ते वजन का है कि कुर्सी पर परम आनंद की मुद्रा में समा जाए। वो किस टाइप की कुर्सी चाहता है। इत्ते गंभीर सवालों पर चर्चा का नंबर तो लिस्ट में आईपीएल की डेक्कन टीम सरीखा है। नीचे से पहला।
देश का सच्चा, कर्तव्यनिष्ठ और संवेदनशील नागरिक होने के नाते मुझे लग रहा है कि मेरी परीक्षा की घड़ी आ गई है। आपने सचिन तेंदुलकर को झटके में राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिया तो मुझ जैसे निठल्ले चिंतक को भी राष्ट्रपति पद के दावेदारों के तौर पर नामित कर दीजिए। सचिन ने किया ही क्या था? वो ताउम्र कहता रहा कि क्रिकेट खेलने में उसे मजा आता है। तो भाई मजे लूटते हुए राज्यसभा में पहुंच लिया। मुझे भी निठल्ले चिंतक की परममुद्रा में बैठे रह मज़ा आता है। मेरी भी सुनिए।
यूं सच कहूं तो राष्ट्रपति बनने के अपने कुछ दूसरे उद्देश्य भी हैं। अरे नहीं, भ्रष्टाचार नहीं। भ्रष्टाचार की कोयल तो पक्ष-विपक्ष के नेताओं के आँगन में ही इत्ती कूक लेती है कि राष्ट्रपति भवन कायदे से पहुंच ही नहीं पाती।
अपना टारगेट कुछ और है। एक तो इत्ते बड़े घर में कभी रहे नहीं हैं। रहे क्या गए भी नहीं हैं। बच्चे कबड्डी या क्रिकेट सब घर में ही खेल लेंगे। अभी सोसाइटी में बने पार्क तक जाते हैं तो भी उनके साथ उनकी मम्मी को जाना पड़ता है। आपके घर में आ जाएंगे तो चुन्नू-मुन्नी की मम्मी संग कुछ रोमांटिक गूटरगूं का वक़्त मिल जाएगा।
फिर ‘वर्क फ्राम होम’ का कॉसेप्ट भी पूरी तरह समझ आ जाएगा। घर में ही होगा दफ्तर तो कर लो पेट्रोल का दाम रुपए पचहत्तर। हमारे ठेंगे से ! एक बड़ी समस्या और हल होगी। वो यह कि अगले दो तीन साल में परिवार के 17 छोरे-छोरियों को शादी का लड्डू चखना है। तो मौसा-चाचा-बुआ वगैरह दिल्ली वाले इंटेलीजेंट कम मालदार रिश्तेदार यानी मेरी तरफ आँख लगाए बैठे हैं। उन्हें क्या मालूम दिल्ली शहर में पचास-साठ हजार में महीने भर में पचास किलो आलू-प्याज और टमाटर तक नहीं आ रहा। इत्ता बड़ा घर होगा तो सारी बारातें यहीं निपट लेंगी। धर्मशाला-होटल का तो चक्कर ही नहीं। इत्ते बड़े कमरों में बाराती-घाराती मस्ती से रहेंगे।
निठल्ला चिंतक हूं तो कविताएं लिखना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। कविताएं पेल रहा हूं सालों से। 84 बार प्रकाशकों ने मुझे आधा कप चाय और एक किलो आश्वासन के साथ वापस भेजा है। बेइज्जती जैसे प्रगति विरोधी और घटिया शब्द को मैंने अपनी डिक्शनरी में कभी रखा ही नहीं, इसलिए कह सकता हूं कि ये इंसल्ट नहीं थी अलबत्ता उसके नीचे की कोई चीज़ रही। राष्ट्रपति बन गया तो कविता संग्रह झटके में आ जाएगा। हो सकता है कि कविताओं पर कोई एलबमनुमा आइटम भी बन जाए। अपनी नौकरी में दिल्ली शहर ही कायदे से नहीं घूम पाया देश तो क्या खाक घूम पाता। पत्नी की वेदना से व्यथित होकर ससुर साहब ने एक बार दिल्ली-लखनऊ के बीच प्लेन का टिकट गिफ्ट न किया होता तो अंदर से प्लेन को भी हम उड़ने वाली बस ही समझते। कित्ते भले होते हैं न सास-ससुर ? खैर, राष्ट्रपति बना तो यह ख्वाब भी पूरा हो लेगा। मेरी श्रीमतीजी ने भी इस ख्वाब की खूंटी पर अरमानों की लंबी लिस्ट टांग रखी है। तो महामहिम कृपया हमारी विनती भी सुनिए। पक्ष-विपक्ष के बीच कैंडिडेट को लेकर मारामारी मची है तो आप मुझे ही उम्मीदवार बनवा दीजिए। आखिर कॉमनमैन को भी राष्ट्रपति बनने का हक है।