संप्रग सरकार पिछड़े वर्गो के कोटा के भीतर अल्पसंख्यकों के 4.5 फीसदी कोटा की व्यवस्था को रद करने के आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अब सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रही है। कोर्ट का कहना था कि सिर्फ धर्म आधारित आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं की जा सकती। इस पर केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का कहना है कि यह सही है कि संविधान में केवल धर्म आधारित आरक्षण का प्रावधान नहीं है, लेकिन यह पिछड़े वर्गो के कोटे पर दिया गया कोटा था। सलमान खुर्शीद ने कहा कि सरकार ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर ही इस कोटे का प्रावधान किया था। इसके पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठता के साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने के मायावती सरकार के कानून संशोधन को असंवैधानिक ठहराते हुए उत्तर प्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण के फैसले को रद करने का कदम उठाया तो आरक्षण की सियासत कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने वाले तमाम राजनीतिक दलों ने इस पर भी सवाल खड़े किए थे। अदालत की व्यवस्था को पलटने के लिए संविधान संशोधन लाने की बात कही गई और कांग्रेस में दलित राजनीति का झंडा उठाने वाले पीएल पुनिया ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि इससे देश भर में भ्रांतियां फैल गई हैं और केंद्र सरकार को इस बारे में स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। वोट की सियासत सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर कब तक हम संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार करते हुए वोट की राजनीति करते रहेंगे? भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान दस वर्षो के लिए लागू किया गया था और संविधान निर्माताओं ने इसके लिए अधिकतम सीमा पचास वर्ष रखी थी, लेकिन देश के राजनीतिक हालात को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आरक्षण का सिलसिला देश में कभी थमने वाला नहीं।
16 नवंबर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण को लेकर जो फैसला सुनाया था, उससे इस बात की उम्मीद जगी थी कि एक बार समाज के वंचित और कमजोर तबके को आरक्षण का फायदा मिलने के बाद धीरे-धीरे आरक्षण खत्म होता जाएगा। इस फैसले में आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से कम रखने की बात कही गई थी। आरक्षण को सिर्फ प्रारंभिक भर्तियों पर लागू करने की बात थी और पदोन्नति में भी किसी तरह के आरक्षण नहीं दिए जाने का जिक्र था। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमीलेयर यानी पिछड़े में अगड़ों को आरक्षण से बाहर रखने का फैसला सुनाया था। इसके साथ ही विकास और अनुसंधान के काम में लगे संगठनों, संस्थाओं में तकनीकी पदों के संबंध में आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं करने की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया के पायलट, परमाणु और अंतरिक्ष कामों में लगे वैज्ञानिक जैसे पदों में आरक्षण लागू नहीं होना चाहिए। क्या देश के तमाम राजनीतिक दल इस ऐतिहासिक फैसले को नजीर बनाकर समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के लिए एक सही नीति नहीं बना सकते थे? दरअसल, आरक्षण की राजनीति का मुद्दा देश में बरसों से चला आ रहा है। 20 सितंबर 1978 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने बिंदेश्वरी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग की घोषणा की थी, जिसकी रिपोर्ट 21 दिसंबर 1980 को आई, लेकिन बहुत दिनों तक इस रिपोर्ट पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। राजनीति ने एक नई करवट ली और इस धूल खाती रिपोर्ट के जरिये वीपी सिंह ने खुद को पिछड़ा वर्ग का मसीहा बनाने की ठान ली। 1989 में जनता दल सरकार बनने के बाद पिछड़ा वर्ग आरक्षण को लेकर जब सरकार की तरफ से पहल की गई तो इसके विरोध में देश के युवाओं ने जमकर प्रदर्शन किया।
आरक्षण के विरोध में आत्मदाह करने वालों का भी तांता लग गया। उस वक्त सरकार ने विरोध को दरकिनार करते हुए 7 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा कर दी, लेकिन जगह-जगह आगजनी और आत्मदाह की घटनाओं को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1 अक्टूबर 1990 को इस पर रोक लगा दी थी। एक बार फिर कांग्रेस सत्ता में आई, लेकिन मंडल की सिफारिशों को दरकिनार कर वह पिछड़े तबके की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती थी। कांग्रेस ने राष्ट्रीय मोर्चा की आरक्षण नीति में संशोधन किया और 16 नवंबर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण को लेकर फैसला सुना दिया। आरक्षण के तमाम प्रावधानों के बावजूद क्या समाज में कमजोर और वंचित वर्ग के तबके की स्थिति को संतोषजनक कहा जा सकता है? आरक्षण ने किसका भला किया आजादी के बाद से लेकर अब तक गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे परिवारों की हालत में कोई खास सुधार या तब्दीली नहीं दिखाई देती। आज भी अनुसूचित जाति के 52 फीसदी से ज्यादा और अनुसूचित जनजाति के 63 फीसदी से ज्यादा बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। यही नहीं, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हालात और भी बदतर हैं। आंकड़े बताते हैं कि आज भी 75 फीसदी दलित आबादी गरीबी की रेखा के नीचे है। तमाम राजनीतिक दल किस आरक्षण की बात करते हैं? अगर केवल दलित महिलाओं और लड़कियों की बात करें तो आज भी ज्यादातर लोग साक्षर तक नहीं हैं। लड़कियों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजा जाता है। मुस्लिम समाज की हालत किसी से छिपी नहीं है, लेकिन समाज के इस तबके को कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल ने वोट बैंक के अलावा कुछ नहीं समझा। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च और अमेरिका के मैरीलैंड विश्वविद्यालय के इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट के अध्ययन में भी यह बात सामने आ चुकी है कि देश में हर 10 में से 3 मुस्लिम गरीबी रेखा से नीचे हैं और उनकी हर महीने की कमाई 550 रुपये से भी कम है। मुस्लिम आबादी में केवल 32 फीसदी पुरुष और 14 फीसदी महिलाएं शिक्षित हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अक्टूबर 2005 में न्यायाधीश राजिंदर सच्चर की अगुवाई में मुस्लिम समुदाय की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए कमेटी गठित की थी और इस रिपोर्ट में यह साफ कहा गया था कि देश में मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा की स्थिति अन्य समुदायों की तुलना में काफी खराब है। क्या सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या देश की संप्रग सरकार मुसलमानों के हालात से वाकिफ नहीं थी?
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