19 अप्रैल 2014
नई दिल्ली|
बाजारवाद की बढ़ती प्रवृत्ति के साथ भारत में टेलीविजन कोई दुर्लभ साधन नहीं रह गया है। बदलते परिदृश्य को देखते हुए मशहूर टीवी अभिनेता हर्ष छाया को लगता है कि विज्ञापनों के कारण टीवी में संवेदनशीलता घटी है। आदर्शरूप से टीवी को संवेदनशीलता को ऊपर उठाने का काम करना चाहिए।
लगभग 20 सालों तक छोटे पर्दे के उतार-चढ़ाव देख चुके हर्ष कहते हैं कि 1980 के दशक में टीवी, टेलीफोन, फ्रिज और यहां तक कि टेप रिकॉर्डर समृद्धि के प्रतीक थे, लेकिन खरीददारी की शक्ति बढ़ने के साथ, खासतौर से ऋण सुविधाओं के आने से जनसंख्या का बड़ा भाग मनोरंजन के दायरे में आया है।
इसका प्रभाव क्या हुआ?
एक ईमेल साक्षात्कार में हर्ष ने बताया, "न्यूनतम सामान्य भाजक (डिनामनेटर) पाने के लिए कार्यक्रमों में संवेदनशीलता का आधार पूरा करने के लिए बदतर भरपाई होनी शुरू हो गई।"
उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि संवेदनाओं को ऊपर उठाने की जिम्मेदारी टीवी की थी।"
उनका कहना है कि कोई माध्यम टीवी जितना सशक्त नहीं जो लोगों के दिमाग पर असर डाल सके।
एक औद्योगिक रिपोर्ट के मुताबिक, 2012 के अंत तक भारत के घरों में अनुमानित 1,550 लाख टीवी सेट हैं।
छोटे पर्दे से अपनी अनुपस्थिति के बारे में उन्होंने कहा, "निश्चित तौर पर टीवी 10-12 साल पहले बेहतर था। लेकिन उसके बाद ऐसा लगता है कि चैनलों के ये विपणन विभाग और उनके सर्वे उनके कार्यक्रम निर्धारित करते हैं।"
उन्होंने कहा, "फिर भी टीवी देश के आंतरिक भागों में गहराई से उतर रहा है।"
उन्होंने कहा, "आज टीवी पर विज्ञापन ज्यादा और कार्यक्रम कम हो गए हैं।"
उन्होंने कहा, "कार्यक्रम जरूरी है, इसलिए विज्ञापनों के बीच में कुछ दिखा दिया जाता है।"
हर्ष ने कहा कि अगर उन्हें उनकी भावनाओं के अनुरूप कुछ मिलता है, तभी वह टीवी पर वापसी कर सकते हैं।