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पितरों को समर्पित श्राद्धपक्ष की अहमियत

importance of pinddaan
अनिरुद्ध शर्मा
 
अपने स्वर्गवासी पूर्वजों की शान्ति एवं मोक्ष के लिए किया जाने वाला दान एवं कर्म ही श्राद्ध कहलाता है। जिसने हमें जीवन दिया, उसके लिए, जिसने हमें जीवन देने वाले को जीवन दिया, उसके लिए तथा जो हमारे कुल एवं वंश का है, उसके लिए। इस प्रकार तीन पीढि़यों तक के लिए किया जाने वाला होम, पिण्डदान तथा तर्पण (जल-भोजन) ही श्राद्धकर्म कहलाता हैं। यदि हम अपने पितरों का श्रा़द्ध करेंगे, तो अगली पीढ़ी हमारा भी श्राद्ध करेगी, श्राद्धकर्म में ऐसी सामाजिक धारण भी छिपी होती है।
शास्त्रों द्वारा जन्म से ही मनुष्य पर लिए तीन प्रकार के ऋण अर्थात कर्तव्य बतलाये गये हैं:- देवऋण, ऋषिऋण तथा पितृऋण। अतः स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण से, यज्ञों द्वारा देवऋण से तथा संतानोत्पत्ति एवं श्राद्ध (तर्पण, पिण्डदान) द्वारा पितृऋण से मुक्ति पाने का रास्ता बतलाया गया है। इन तीनों ऋणों से मुक्ति पाये बिना व्यक्ति का पूर्ण विकास एवं कल्याण होना असंभव है। प्रत्येक वर्ष आश्विन मास के कृष्णपक्ष के पंद्रह दिन ‘पितृपक्ष’ के नाम से जाने जाते है। इसे श्राद्धपक्ष तथा महालयपक्ष भी कहते हैं। इन सभी दिनों में लोग अपने पूर्वजों को जल तर्पण करके, उनके मोक्ष एवं शान्ति की कामना करते है तथा उनकी मृत्युतिथि अर्थात पुण्यतिथि (जो तिथि अन्तिम-श्वास त्यागते समय हो) पर श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करते हैं। श्राद्ध का अर्थ है, श्रद्धाभाव से पितरों के लिए किया गया दान। श्राद्धकर्म में होम, पिण्डदान एवं तर्पण (जल-भोजन) आदि आते हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार- देश, काल तथा पात्र में विधि द्वारा जो कर्म तिल, यव, कुश और मंत्रों द्वारा श्रद्धापूर्वक किया जाये, वही श्राद्ध है।

शास्त्रों के अनुसार पृथ्वी से ऊपर सात लोक माने गये है- (सत्य, तप, महा, जन, स्वर्ग, भुवः, भूमि)। इन सात लोकों में से भुवः लोक को पितरों का निवास स्थान अर्थात पितृलोक माना गया है। अतः पितृलोक को गये हमारे पितरों को कोई कष्ट न हो, इसी उद्देश्य से श्राद्धकर्म किये जाते है। भुवः लोक में जल का अभाव माना गया है, इसीलिए सम्पूर्ण पितृपक्ष में विशेष रूप से जल तर्पण करने का विधान है। इस पितृपक्ष में सभी पितर भुवः अर्थात पितृलोक से पृथ्वीलोक की ओर प्रस्थान करते हैं तथा विना निमंत्रण अथवा आवाहन के भी अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ पहुँच जाते हैं तथा उनके द्वारा किये होम, श्राद्ध एवं तर्पण से तृप्त हो, उन्हें सर्वसुख का आर्शीवाद प्रदान करते हैं।

पितृपक्ष में किये गये श्राद्ध से पितृगण वर्षभर सन्तुष्ट एवं प्रसन्न रहते हैं। श्राद्ध में अर्पित किया गया भोजन देवता बने पितरों को अमृत रूप में, दैत्य बने पितरों को माँस रूप में, प्रेत बने पितरों को रुधिर रूप में, गंधर्व बने पितरों को आनन्द-भोगों के रूप में, सर्प बने पितरों को वायु रूप में तथा पशु बने पितरों को घासादि के रूप में प्राप्त होता है। पितृपक्ष में श्राद्ध तो संबंधित तिथियों को किये जाते है, किन्तु जल तर्पण प्रतिदिन किया जाता है। देवताओं तथा ऋषियों को जल अर्पित करने के पश्चात पितरों को जल तर्पण से सन्तुष्ट किया जाता है। जिस घर में पितृपक्ष में प्रतिदिन जल तर्पण नहीं किया जाता, उस घर में आये पितर निराश एवं दुःखी होकर लौट जाते हैं तथा शाप देते है। पितृपक्ष में पितर कुशा की नोक पर निवास करते है। इसी कारण तर्पण करते समय कुशा को अँगुलियों में धारण किया जाता है तथा जो भी हम तर्पण (जल-भोजन) करते है, वह इसी कुशा के द्वारा हमारे पितरों को प्राप्त होता है।

प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्व की तीन पीढि़यों अर्थात माता-पिता, पितामह-पितामही (दादा-दादी), प्रपितामह-प्रपितामही (परदादा-परदादी) के साथ-साथ अपने मातामह-मतामही (नाना-नानी) का भी श्राद्ध करना चाहिए। इसके अतिरिक्त श्राद्धकर्ता न होने की स्थिति में अपने गुरु-गुरुमाता, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, भाई-भाभी, सास-ससुर, मामा-मामी, बहिन-बहनोई, पुत्री-दामाद, भतीजा-भतीजी, भानजा-भानजी, बूआ-फूफा, मौसा-मौसी, पुत्र-पुत्रवधू, मित्र, शिष्य, सौतेली माता तथा उसके माता-पिता आदि का भी श्राद्ध किया जा सकता है। सामान्यतः पुत्र को ही अपने पिता एवं पितामहों का श्राद्ध करने का अधिकार है, किन्तु पुत्र के अभाव में मृतक की पत्नी तथा पत्नी न होने पर पुत्री का पुत्र (धेवता) भी श्राद्ध कर सकता है। दत्तक (गोद लिए हुए) पुत्र को भी श्राद्ध करने का अधिकार है। वंश में कोई पुरुष न होने की दशा में शास्त्रों ने स्त्रियों को भी श्राद्ध करने का अधिकार दिया है। गरुड़ पुराण के अनुसार- जिसके कुल में कोई भी न हो, वह जीवित-अवस्था में स्वयं अपना श्राद्ध कर सकता है।

पितृपक्ष की सभी पंद्रह तिथियाँ श्राद्ध को समर्पित हैं। अतः वर्ष के किसी भी माह एवं तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों का श्राद्ध उसी तिथि को किया जाना चाहिए। पितृपक्ष में कुतप वेला अर्थात मध्यान्हः के समय (दोपहर साढे़ बारह से एक बजे तक) श्राद्ध करना चाहिए। प्रत्येक माह की अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि मानी जाती है, किंतु आश्विन कृष्ण अमावस्या पितरों हेतु विशेष फलदायक है। इस अमावस्या को पितृविसर्जनी अमावस्या अथवा महालया भी कहा जाता है। इसी तिथि को समस्त पितरों का विसर्जन होता है। जिन पितरों की पुण्यतिथि ज्ञात नहीं होती अथवा किन्हीं कारणवश जिनका श्राद्ध पितृपक्ष के पंद्रह दिनों में नहीं हो पाता, उनका श्राद्ध, दान, तर्पण आदि इसी तिथि को किया जाता है। इस अमावस्या को सभी पितर अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के द्वार पर पिण्डदान, श्राद्ध एवं तर्पण आदि की कामना से जाते है, तथा इन सबके न मिलने पर शाप देकर पितृलोक को प्रस्थान कर जाते हैं।

श्राद्धकर्म में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता है, जैसे:- जिन व्यक्तियों की सामान्य मृत्यु चतुर्दशी तिथि को हुई हो, उनका श्राद्ध केवल पितृपक्ष की त्रायोदशी अथवा अमावस्या को किया जाता है। जिन व्यक्तियों की अकाल-मृत्यु (दुर्घटना, सर्पदंश, हत्या, आत्महत्या आदि) हुई हो, उनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही किया जाता है। सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी को ही किया जाता है। नवमी तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है। संन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी को किया जाता है। पूर्णिमा को मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध केवल भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा अथवा आश्विन कृष्ण अमावस्या को किया जाता है। नाना-नानी का श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को किया जाता है। पितरों के श्राद्ध के लिए ‘गया’ को सर्वोत्तम माना गया है, इसे ‘तीर्थों का प्राण’ तथा ‘पाँचवा धाम’ भी कहते है। माता के श्राद्ध के लिए ‘काठियावाड़’ में ‘सिद्धपुर’ को अत्यन्त फलदायक माना गया है। इस स्थान को ‘मातृगया’ के नाम से भी जाना जाता है। ‘गया’ में पिता का श्राद्ध करने से पितृऋण से तथा ‘सिद्धपुर’ (काठियावाड़) में माता का श्राद्ध करने से मातृऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति प्राप्त होती है।

श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मण के पैर धोकर आदर सहित आसन पर बैठाना चाहिए तथा तर्जनी से चंदन-तिलक लगाना चाहिए। श्राद्धकर्म में अधिक से अधिक तीन ब्राह्मण पर्याप्त माने गये हैं। श्राद्ध के लिए बने पकवान तैयार होने पर एक थाली में पाँच जगह थोड़े-थोड़े सभी पकवान परोसकर हाथ में जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन, तिल ले कर पंचबलि (गो, श्वान, काक, देव, पिपीलिका) के लिए संकल्प करना चाहिए। पंचबलि निकालकर कौआ के निमित्त निकाला गया अन्न कौआ को, कुत्ते का अन्न कुत्ते को तथा अन्य सभी अन्न गाय को देना चाहिए। तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। ब्राह्मण भोजन पश्चात उन्हें अन्न, वस्त्र, ताम्बूल (पान का बीड़ा) एवं दक्षिणा आदि देकर तिलक कर चरणस्पर्श करना चाहिए। ब्राह्मणों के प्रस्थान उपरान्त परिवार सहित स्वयं भी भोजन करना चाहिए।

श्राद्ध के लिए शालीन, श्रेष्ठ गुणों से युक्त, शास्त्रों के ज्ञाता तथा तीन पीढि़यों से विख्यात ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए। योग्य ब्राह्मण के अभाव में भानजे, दौहित्र, दामाद, नाना, मामा, साले आदि को आमंत्रित किया जा सकता है। श्राद्ध के लिए आमंत्रित ब्राह्मण की जगह किसी अन्य को नहीं खिलाना चाहिए। श्राद्धभोक्ता को भी प्रथम निमंत्राण को त्यागकर किसी अन्य जगह नहीं जाना चाहिए। भोजन करते समय ब्राह्मण को मौन धारण कर भोजन करना चाहिए तथा हाथ के संकेत द्वारा अपनी इच्छा व्यक्त करनी चाहिए। विकलांग (अगंहीन) अथवा अधिक अंगोंवाला ब्राह्मण श्राद्ध के लिए वर्जित है। श्राद्धकर्ता को सम्पूर्ण पितृपक्ष में दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, औषध-सेवन, क्षौरकर्म (मुण्ड़न एवं हजामत) मैथुन-क्रिया (स्त्री-प्रसंग), पराये का अन्न खाना, यात्रा करना, क्रोध करना एवं श्राद्धकर्म में शीघ्रता वर्जित है। माना जाता है कि पितृपक्ष में मैथुन (रति-क्रीड़ा) करने से पितरों को वीर्यपान करना पड़ता है।

श्राद्धकर्ता को प्रतिदिन पूर्णब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्नान के बाद तर्पण करना चाहिए। श्राद्धकर्म में दौहित्र (पुत्री का पुत्र), कुतप (मध्यान्हः का समय), काले तिल एवं कुश अत्यन्त पवित्र माने गये है। संध्या और रात्रि के समय श्राद्ध नहीं करना चाहिए किंतु ग्रहणकाल में रात्रि को भी श्राद्ध किया जा सकता है। गया, गंगा, प्रयाग, कुरुक्षेत्र तथा अन्य प्रमुख तीर्थों में श्राद्ध करने से पितर सर्वदा सन्तुष्ट रहते हैं। श्राद्धकर्म में श्रद्धा, शुद्धता, स्वच्छता एवं पवित्रता पर विशेष ध्यान देना चाहिए, इनके अभाव में श्राद्ध निष्फल हो जाता है। श्राद्धकर्म से पितरों को शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा प्रसन्न एवं तृप्त पितरों के आर्शीवाद से हमें सुख, समृद्धि, सौभाग्य, आरोग्य तथा आनन्द की प्राप्ति होती है।

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