23 जनवरी 2012
हिन्दू कैलेंडर के ग्यारहवें महीने को माघ कहा जाता है। यह वह समय होता है जब शीतकाल अपने यौवन पर होता है। चारों ओर कडाके की ठंड पड रही होती है। ऐसे मौसम मे ही शाक, फल और वनस्पतियां अमृत तत्व को अपने में सर्वाधिक आकर्षित करती हैं। जब वनस्पतियां ऐसे मौसम का लाभ ले सकती हैं तो मानव इस काम भला पीछे क्यों रहे। ये महीना शरीर को कैलशियम , विटामिन डी और आयरन से पोषित करने का महीना है । इस महीने में सभी त्यौहार तिल , गुड़ से मनाए जाते हैं । उड़द की दाल की खिचड़ी खायी जाती है और पवित्र नदियो में स्नान किया जाता है। माघ स्नान केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। शरीर को मौसम के अनुकूल बनाने में माघ स्नान बहुत अत्यधिक सहायक होता है। माघ के महीने में ठंड अपने चर्मोत्कर्ष पर जाती है और धीरे-धीरे कम होने लगती है और वातावरण में गर्मी का आगमन होने लगता है। ऎसे में ऋतु के परिवर्तन का असर स्वास्थ्य कोई प्रतिकूल प्रभाव न डाले इसलिए नित्य प्रात:काल में स्नान करने से देह को मजबूति प्राप्त होती है और हमारा शरीर आने वाले मौसम के अनुकूल हो जाता है। इस प्रकार इस मौसम में हमें इस बात का बोध होता है कि प्राणि अपने भावों और विचारों को शुद्ध और सात्विक रखे तथा कर्म के प्रति निष्ठावान बना रहे क्योंकि इसी प्रकार के आचरण से ही वह प्रतिकूलताओं से बचा रह सकता है।
माघ के महीने में सूर्य का महत्व बढ़ जाता है, क्योंकि उसकी गति उत्तरायण की ओर बढ़ती है और यह संकेत होता है हम सबके लिए कि अब अंधकार को छोड़ प्रकाश की ओर बढ़ने का समय आ गया है। साधना विज्ञान के मर्मज्ञों के अनुसार शिशिर ऋतु में माघ मास का महत्व सबसे अधिक है। इसी कारण वैदिक काल में इस महीने का उपयोग प्राय: सभी लोग आध्यात्मिक साधनाओं के लिए करते थे। ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि यह परम्परा रामायण एवं महाभारत काल में भी प्रचलित थी। रामायण काल में तीर्थराज प्रयाग में महर्षि भारद्वाज का आश्रम एवं साधना आरण्यक था। उनके सान्निध्य में माघ महीने में भारत वर्ष के अनेक क्षेत्रों के आध्यात्मिक जिज्ञासु साधक एकत्रित होते थे। वे प्रयाग में एक मास का कल्पवास करते थे। तुलसीदास जी ने लिखा है कि-माघ मकर गत रवि जब होई, तीरथ-पतिहि आव सब कोई। आगे फिर कहा है- ऐहि प्रकार भरि माघ नहाही, पुनि सब निज-निज आश्रम जाहीं। अर्थात माघ महीने में सभी साधक-तपस्वी प्रयाग में आकर अपनी साधना पूरी करते थे और फिर यथाक्रम वापस लौटते थे। यही प्राचीन प्रथा आज भी चली आ रही है।
इस महीने में जगह-जगह माघ मेला का आयोजन किया जाता है विशेषकर भारत के सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों में इसे उत्सव की तरह मनाया जाता है। प्रयाग, उत्तरकाशी और हरिद्वार आदि स्थानों का माघ मेला तो जगत प्रसिद्ध है। इस तरह के मेलों का मुख्य उद्देश्य नदी या सागर स्नान होता है। कहते हैं, माघ के धार्मिक अनुष्ठान के फलस्वरूप प्रतिष्ठानपुरी के नरेश पुरुरवा को अपनी कुरूपता से मुक्ति मिली थी। वहीं भृगु ऋषि के सुझाव पर व्याघ्रमुख वाले विद्याधर और गौतम ऋषि द्वारा अभिशप्त इंद्र को भी माघ स्नान के महाम्त्य से ही श्राप से मुक्ति मिली थी। पद्म पुराण के महात्म्य के अनुसार-माघ स्नान से मनुष्य के शरीर में स्थित उपाताप जलकर भस्म हो जाते हैं। इस प्रकार माघमेले का धार्मिक महत्त्व भी है।
पद्मपुराण में एक कथा वर्णित है- प्राचीन काल में नर्मदा के तट पर सुव्रत नामक एक ब्राह्ण रहते थे। वे समस्त वेद-वेदांगो, धर्मशास्त्रों व पुराणों के ज्ञाता थे। वे अनेक देशों की भाषाएं व लिपियां भी जानते थे। इतना विद्वान होते हुए भी उन्होंने अपने ज्ञान का उपयोग धर्मकार्यों में नहीं किया। पूरा जीवन केवल धन कमाने में भी गवां दिया। जब सुव्रत बुढ़े हो गए तब उन्होंने स्मरण हुआ कि मैंने धन तो बहुत कमाया लेकिन परलोक सुधारने के लिए कोई कार्य नहीं किया। यह सोचकर वे पश्चाताप करने लगे। उसी रात चोरों ने उनके धन को चुरा लिया लेकिन सुव्रत को इसका कोई दु:ख नहीं हुआ क्योंकि वे तो परमात्मा को प्राप्त करने के लिए उपाय सोच रहे थे। तभी सुव्रत को एक श्लोक याद आया- माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति।। सुव्रत को अपने उद्धार का मूल मंत्र मिल गया। सुव्रत ने माघ स्नान का संकल्प लिया और नौ दिनों तक प्रात: नर्मदा के जल में स्नान किया। दसवें दिन स्नान के बाद उन्होंने अपना शरीर का त्याग दिया। सुव्रत ने जीवन भर कोई अच्छा कार्य नहीं किया था लेकिन माघ मास में स्नान करके पश्चाताप करने से उनका मन निर्मल हो चुका था। जब उन्होंने अपने प्राण त्यागे तो उन्हें लेने दिव्य विमान आया और उस पर बैठकर वे स्वर्गलोक चले गए।
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